शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

हम स्वयंअपने शत्रु


यह मनुष्य जीवन ही है, जिसमें सोचने-समझने और उसके अनुरूप करने की क्षमता है। लेकिन, उस क्षमता का सही उपयोग हम नहीं कर रहे हैं। आत्म-कल्याण में हम अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। संसार वृद्धि में, संसार के कार्यों में हम अपनी बुद्धि का उपयोग कर रहे हैं। वास्तव में स्वयं के साथ स्वयं की शत्रुता बढा रहे हैं। हम स्वयं अपनी आत्मा के शत्रु बने हुए हैं। गलत मार्ग पर हमारी आत्मा चलती है तो वह स्वयं की शत्रु बनती है और सही मार्ग पर चलती है तो स्वयं की मित्र बनती है। लेकिन, आज हमारी स्वयं की मनःस्थिति ऐसी बनी हुई है कि हम सभी अधिकांश रूप से हमारी आत्मा के शत्रु बने हुए हैं। जब तक हमारा ध्यान आत्मा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाले इन नाशवान् पदार्थों के प्रति लगा रहेगा, चाहे वह नाशवान पदार्थ शरीर हो या शरीर की कोई अन्य सम्पदा हो। जब तक हम बाह्य तत्त्व से जुडे हुए हैं, अपने से भिन्न तत्त्व से जुडे हुए हैं, तब तक हम अशान्त ही रहगें। शान्ति होती है अद्वैत भाव में रहने पर। अद्वैत में हम कब जा सकते हैं, जब केवल आत्मा में जाएं। पर के प्रति हमारा ध्यान ही न रहे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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