शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

एकांतवाद में मिथ्यात्व



अकेला ज्ञानवादी मिथ्यादृष्टि है, अकेला क्रियावादी भी मिथ्यादृष्टि है, वैसे ही निरपेक्ष प्रकार से आत्मा को नित्य ही या अनित्य ही कहने वाला भी मिथ्यादृष्टि ही है। आत्मा विभु ही है अथवा तो अणु ही है, ऐसा मानने वाला भी मिथ्यादृष्टि है; इससे स्पष्ट है कि श्री जैनशासन में संपूर्ण धर्ममय वस्तु मानी गई है। दुनिया में भी सारे अंग एकत्रित हों तो ही अखंड शरीर कहा जाता है, परंतु सारे ही अंगोपांग भिन्न-भिन्न रखे जाएं तो शरीर नहीं कहा जाएगा। एक अंगुलि भी न हो तो भी वह खंडित कहा जाएगा, कान या आंख न हो तो भी खंडित ही कहा जाएगा। अर्थात् एक भी अंगहीन नहीं चल सकता। वैसे भिन्न-भिन्न नय की मान्यता श्री जैनदर्शन की नहीं है, परन्तु सर्व नय की मान्यता श्री जैनदर्शन की है। यह वस्तु ऐसी हीइस प्रकार एकांत से जैनदर्शन नहीं कहता है, परंतु ऐसी भी हो और ऐसी भी होइस प्रकार से कहता है। वस्तु के मुख्य धर्म को या सर्व धर्ममय वस्तु का वर्णन करते हुए निश्चयात्मक भी कहे, निश्चयात्मक न ही कहे; ऐसा भी नहीं है, परंतु अपेक्षाएं हृदय में रखकर ही कहे। अपेक्षाएं रखे बिना कहे, यह नहीं चल सकता है, इसलिए ही एक अक्षर को नहीं मानने में हर्ज क्या?’, इस प्रकार श्री जैनदर्शन में नहीं बोला जा सकता।


जिस शास्त्र में थोडा भी असत्य है, वह सारा असत्य है, इसीलिए तो द्वादशांगी और उसका अनुसरण करते हुए श्रुत को सम्यक्श्रुत कहा और शेष को मिथ्याश्रुत कहा; इससे ऐसा नहीं है कि मिथ्यादृष्टि शास्त्रों में कुछ भी अच्छा है ही नहीं, परंतु उसमें जो थोडा कुछ प्रभुशासन से गया हुआ अच्छा है, वह भी असत्य (के मिश्रण) से बिगडा हुआ है। इसलिए ही निकम्मा है। असत्य के साथ अच्छा मिल गया, इसलिए अच्छे का भी इन्कार किया, तो यहां अच्छे में यदि असत्य मिल जाए तो वह फैंक देना पडे, इसमें आश्चर्य क्या? इसलिए तो निह्रवों को बाहर किया। इसलिए ही कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवानश्री हेमचंद्रसूरिजी महाराज कहते हैं कि, ‘सूत्र के एक भी अक्षर पर जो अश्रद्धा करे, वह सम्यग्दृष्टि से हटकर मिथ्यादृष्टि बनता है।इसलिए सम्यक्त्व का नाश करने वाली और मिथ्यात्व को लाने वाली शंका करनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि, प्रभु शासन में एक भी बात ऐसी नहीं है कि, ‘यह मानूं और यह न मानूंऐसा कहने से चले।


एक भी अंग या उपांग के बिना शरीर अखंड नहीं कहा जाता, परंतु वह शरीर खंडित ही कहा जाएगा। अन्य दर्शन एक-एक नय को पकडकर बैठे हैं, जबकि श्री जैनदर्शन में तो सारे ही नयों का समावेश (होता) है। उसमें वस्तु स्वरूप का घातक एक भी अक्षर नहीं आता। पंचांगी, मूल में से ही जन्मी है। पंचांगी में कही हुई एक भी बात ऐसी नहीं है कि जो सद्दहने योग्य न हो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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