शरीर और इन्द्रियों के प्रति जब तक कठोरता का व्यवहार न किया जाए, तब
तक कर्मों को धक्का लगता ही नहीं। शरीर को पंपोलने, शरीर की सार-संभाल
करने और उसी की सेवा में लगा व्यक्ति वास्तविक धर्म कर ही नहीं सकता। शरीर की पूजा
में से सब पाप पैदा होते हैं। भगवान की सच्ची पूजा करने की फुरसत शरीर के पुजारी
को नहीं मिलती। आजकल शरीर की गंदगी दूर करने के लिए आत्मा में गंदगी भरी जा रही है, यह
कैसी मूर्खता है। भगवान शरीर के प्रति कठोर थे, इसीलिए कर्मों के लिए कठोर बन
सके। भगवान ने उपसर्गों और परीषहों को जिस प्रकार सहन किया, यह
उक्त बात की साक्षी देता है।
शरीर कष्ट भोगने का साधन है या सुख भोगने का साधन? शरीर
से सुख भोगने से संसार घटता है या समभाव पूर्वक कष्ट भोगने से संसार घटता है? जिस
शरीर से सुख भोगा जा सकता था, उस शरीर से भगवान ने कष्ट ही सहन किए, यह
बात आप जानते हैं न?
‘यह जन्म भोग के लिए है’, ऐसा मानने वालों ने दरअसल
भगवान को माना ही नहीं है। ‘यह जन्म त्याग के लिए है’, ऐसा
मानने वालों ने ही भगवान को सही रूप में माना है। संसार में लगभग सभी जीव सुख में
सडने के लिए और दुःख में संतप्त होने के लिए सर्जित हैं। सुख के समय में इन जीवों
में ऐसी सडान पैदा हो जाती है, जिसके कारण ये जीव दुःख में संतप्त होने
के लिए चले जाते हैं। ऐसा क्रम चलता रहता है। दुःख से घबराकर भवोद्वेग पैदा हो, यह
विराग नहीं है,
यह तो दुःख पर द्वेष ही है। इसमें जागृति आए और सुख के
प्रति विरक्ति पैदा हो तो बेडा पार हो जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें