वैसे
वर्ष में एक दिन "मदर्स
डे" मना कर मां को याद कर लेना
और समझ लेना कि मैंने मां के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर लिया, इससे बडी नासमझ कुछ भी नहीं है। जीवन का प्रत्येक क्षण, हमारा रोम-रोम मां को समर्पित हो जाए, तब भी हम मां के उपकारों से उऋण नहीं हो सकते। मां के
उपकारों से वही व्यक्ति उऋण हो सकता है, जो अपनी मां को धर्म के मार्ग पर अग्रसर करे, उसे तीर्थयात्राएं करवाए, उसके
मन में किसी प्रकार की ठेस न पहुंचने दे, उसे किसी प्रकार का कषाय पैदा न होने दे। 13 और 14 मई को हम मां को और मां के
प्रति अपने दायित्वों को समझने का प्रयत्न करेंगे। माताएं भी यह ध्यान रखें कि "केवल बच्चा पैदा कर देने मात्र से" कोई मां, मां नहीं हो जाती।
दुनिया
की सभी माताओं को, जिन्होंने वास्तव में अपने
"मातृत्व को सार्थक किया है", जिनमें असीम करुणा है, जो ममता की प्रतिमूर्ति हैं, जिनमें
वात्सल्य का अतुल्य भण्डार है, जिनमें
संवेदनाओं का चरमोत्कर्ष है, उन सभी
को प्रणाम....!
मां तुम्हें प्रणाम् !
मां, इस एक शब्द में इतना प्यार, ममता, त्याग, तपस्या
भरी हुई है कि किसी और तरह की व्याख्या की जरूरत ही नहीं है। तमिलनाडु की राजधानी
चेन्नई की सन् 2005 की एक घटना है। 36 साल की एक मां
तम्मी चेलवी ने खुद को पंखे से लटका कर आत्महत्या कर ली। हालांकि मैं उसके इस कदम
को सिरे से खारिज करता हूं और उसके आत्महत्या करने को बिलकुल गलत और महापाप मानता
हूं, लेकिन आप जानते हैं, उसने आत्महत्या
क्यों की? इसलिए कि उसके दो बेटे कुमारन (17 वर्ष)
और मोहन कुमार (15 वर्ष) दृष्टिहीन हैं और वह चाहती थी कि उसकी मृत्यु
के बाद उसकी दो आँखों में से एक-एक दोनों को मिल जाए, ताकि वे दुनिया देख
सकें।
दरअसल चेलवी का पति शंकर और वह स्वयं कई स्थानों से
कोशिश कर हार चुके थे कि उनके बेटों को ऑंखें दान में मिल जाएं। जब कहीं से मदद
नहीं मिली तो पति-पत्नी ने तय किया कि दोनों में से जो पहले मरेगा, उसकी
ऑंखें बच्चों को मिलेंगी। मां जल्दी में थी, बच्चे दुनिया
देखें। वह फांसी चढ गई और दुर्भाग्य देखिए, उचित समय पर ऑंखें
नहीं निकाली जा सकीं और दोनों रोते-बिलखते बच्चे मां की ‘कृपा-दृष्टि’ से
वंचित हो गए।
विचार करें चेलवी का। वह मां थी। मां ऐसी ही होती है।
हर मां चेलवी होती है। मां अपना हर दिन, हर घडी, हर
पल बच्चों पर कुर्बान कर देती है और बच्चे हैं कि उनके पास इस दौडती-भागती, लडती-झगडती
दुनिया में मां के लिए वक्त नहीं है, क्योंकि मां के लालन-पालन, आशीर्वाद
से वे बडे हो गए, खडे हो गए हैं, बडे आदमी हो गए हैं, उनकी
शादी हो गई है, उनकी पत्नी और बच्चों को वक्त की दरकार है, इसलिए
वे अपनी मां के लिए वक्त नहीं निकाल सकते, मां के साथ
मुस्कराने का भी वक्त नहीं।
मां के लिए इतना तो करें, उसे प्रणाम करें।
बार-बार करें। हम मां के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते, हर पल हमारे मन में
मां के प्रति और दुनिया की समस्त माताओं के प्रति कृतज्ञता भाव रहे।
मां स्नेह की, प्यार की, विश्वास
की, प्रोत्साहन की और सम्पूर्ण त्याग की मां है। मां जादू
है, मां शब्द उच्चारते ही लब खुल जाते हैं, मानो
कह रहे हों, लो दिल के दरीचे खुल गए, अब भावनाओं की
गांठें खोल दो, बहने दो मन को- मां जो सामने है। “मां” एक छोटे-से शब्द में समाए पूरे
संसार के, हर इंसान के अस्तित्व के, परवरिश, प्यार
और विश्वास के प्रमाण का नाम है। यह नाम तो हर पल के, हर तार में धडकता
है। इसे एक दिन याद नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसे तो किसी भी पल
भुलाया ही नहीं जा सकता। महसूस करके देखिए, मां किस जादू का नाम है।
बच्चों की भलाई के लिए मां को कभी-कभी कठोर बनना पडता
है, पर इसमें उसका दिल कितना दुखता है, यह
तो बस वही जानती है। बच्चा अपनी बात, जिद, भावनाएं मां से
बेझिझक कहलेता है, पर कई बार मां चाहकर भी बच्चों से कह नहीं पाती है, मैं
हूं न..!
बच्चे को मां नौ महीने तक गर्भ में रखती है, अपनी
बाहों में तीन साल तक और अपने हृदय में तब तक, जब तक कि खुद उसकी
मृत्यु न हो जाए।
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