धर्म के चार प्रकार बताए गए हैं: दान, शील, तप और भाव! इन चारों को आप धर्म मानते हैं? यदि इन्हें आप धर्म मानते हैं, तो धन, भोग, आहार
और संसार की सब इच्छाओं को अधर्म मानना ही पडेगा। इन चारों में भी ‘भाव’ सबसे प्रमुख है। भाव अर्थात् मन का पवित्र परिणाम!
शालिभद्र ने ग्वाले के भव में जिस भाव से दान दिया था, वह भाव आने में अभी अनेक भवों की जरूरत पडेगी। उस
ग्वाल-बाल जैसी भी आपकी मनोदशा नहीं है। जिसे किसी दूसरे का लेने में आनंद आता है, उसमें तो उस ग्वाले के लडके का नाम
लेने की पात्रता भी नहीं है।
दान, शील
और तप ये तीनों भाव सहित होने चाहिए। भाव रहित होने पर ये तीनों निरर्थक हैं, इतना ही नहीं, अपितु संसार बढाने वाले हैं। दान, शील और तप चाहे देशविरति संबंधी
हों या सर्वविरति संबंधी, इनमें
भाव के मिलने पर ही ये सफल होते हैं। भाव के प्रभाव से ही ये धर्म, धर्म बन सकते हैं।
धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत
समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है।
नीलामी में रुपयों का माल पैसे में बिकता है। ऐसी अधोदशा आज धर्म की हो रही है, इसका हमें अपार दुःख है। आज देश का
उद्धार नहीं, अधःपतन
हो रहा है। शक्ति (हैसियत) बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही
जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन
बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं। बढेंगे कहां से जब तक कि मोक्ष पाने की प्रबल
भावना और प्रयास नहीं हों?
भावनाओं का आज टोटा हो गया है। दान, शील और तप में भी आज आडम्बर, दिखावा, प्रदर्शन और स्वार्थ घुस गया है। भौतिक आकाँक्षाएं
इसमें घुस गई हैं। विशुद्ध रूप से कर्म-क्षय और मोक्ष प्राप्ति की एक मात्र भावना
आज तिरोहित हो गई हैं, क्योंकि
धर्म का सही स्वरूप लोग नहीं जानते।
मोक्ष की इच्छा/भावना जहां तक न हो वहां तक सब धर्म
भी औपचारिक, अधर्मरूप
ही बनते हैं। अन्तर इतना ही है कि अधर्म सीधा दुःख देता है, जबकि प्रबल भाव रहित धर्म थोडा
पुण्य बंध कराकर उस पुण्य के उदयकाल में महापाप का बंध कराकर, बाद में भारी दुःख देता है।
धर्म-अधर्म सब प्रायः भावों की निर्मलता के आधार पर होते हैं और भावों की तरतमता, प्रगाढता के आधार पर ही परिणामों
की तरतमता, प्रगाढता
होती है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें