रात्रि को क्यों नहीं खाना? रात्रि भोजन के
परिणाम स्वरूप हमारे पेट में विजातीय द्रव्य इकट्ठा हो जाता है जो कि गैस्टिक
ट्रबल पैदा करता है। गैस्टिक ट्रबल से कोष्ठबद्धता कब्ज पैदा हो जाती है, जो कि अन्य नाना प्रकार की बीमारियों का कारण है। प्रमुखतया
नजला, जुकाम, बालों का छोटी उम्र में ही सफेद हो जाना और जडना (टूटना), बालों का पतला हो जाना, सिर दर्द, पेट में सडांध पैदा
होने के कारण पेट का बडा हो जाना, दाँतों में पायरिया
हो जाना, यानि मसूडों में पीप पड
जाना, गले में गिल्टियों का हो
जाना, काग का छिटक जाना आदि-आदि।
यदि हम अपने बढे हुए पेट को कम करना चाहें और अन्य बीमारियों से बचना चाहें तो
हमें भोजन दिन में ही करना होगा।
जो भोजन दिन में बनाया जाता
है, उसमें एक तो ओसजन गैस मिलती है, दूसरे उसमें जहरीले किटाणु जो सूर्य की गरमी के कारण नष्ट
हो जाते हैं, नहीं मिलते, जिसके कारण भोजन हल्का तथा सुपाच्य होता है। रात्रि में
बनाए भोजन में कार्बनडाई ऑक्साइड (जहरीला धुंआ) तथा जहरीले किटाणुओं का मिश्रण
होता है, जिसके कारण भोजन विषाक्त
तथा पचने में भारी होता है। अतः भोजन दिन का बना हुआ ही प्रयोग में लाना चाहिए।
भोजन जीने के लिए किया जाता
है, किन्तु आज लोग भोजन करने के लिए जीना चाहते हैं।
जब देखो खाना चलता ही रहता है। यह स्थिति अच्छी नहीं है। श्रमजीवी लोगों को भोजन
दो बार करना उचित है। एक दिन में प्रातःकाल और दूसरा सांयकाल। किन्तु
विद्यार्थियों तथा बुद्धिजीवियों को भोजन दिन में एक बार करना चाहिए और वह भी अधिक
से अधिक 5 बजे
तक, ताकि दिन छिपने तक अर्थात्
जब तक ओसजन प्रचुर मात्रा में होती है, भोजन पच जाए। इसके बाद तो भोजन सडेगा ही।
जैन कुलों के लिए तो यह बात रूढ होनी चाहिए। कितना
अद्भुत है जैनाचार, लेकिन हम उसका पालन करें तो न..! हमारे पूर्वज इनका पालन करते
थे। ऐसा आचरण हमारे कुल के गौरव को बढाता था और पाप कर्मों के बंधनों से बचाता था, लेकिन आज? यदि जैनों को जो
मिला है, उसकी कीमत होती तो आज भी जैन शासन की अनोखी जाहोजलाली होती..! आज इस पर गंभीरता पूर्वक
चिन्तन की जरूरत है।-सूरिरामचन्द्र
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