जिनको संसार अच्छा लगता है, उनको धर्म किस प्रकार रुचिकर लगेगा...? धर्म
तो आत्मा को सच्चा अहिंसक बनाता है, सच्चा सत्यवादी बनाता है, सच्चा
अस्तेय का उपासक बनाता है,
सच्चा ब्रह्मचारी बनाता है और सच्चा अपरिग्रही बनाता है।
धर्म के सच्चे राग से,
आत्मा में संयम तथा तप आता है। दान, शील, तप
और भाव अर्थात् उदारता,
सदाचार, इच्छानिरोध अथवा सहिष्णुता तथा सद्विचार
यह सब कुछ सच्चे धर्म के राग से आता है।
अब विचार करो कि ‘लक्ष्मी को आप अच्छी और स्वयं की मानते हो, उसमें सच्ची उदारता आती है
क्या...?
विषयानन्दी, सच्चा और शुद्ध शील पालेगा
क्या...?
स्वादिष्ट पदार्थों को खाने के लिए भटकने वाला, सच्चा
तपस्वी बनेगा क्या...?
और अशुद्ध भावना वाले को अच्छे विचार आते हैं क्या...?’ कहना
ही पडेगा कि नहीं ही...। कारण कि ये परस्पर विरोधी वस्तुएं हैं।
अर्थ और काम के प्रेमी सच्चे अहिंसक, सच्चे सत्यवादी, सच्चे
अचौर्य व्रतधारी,
सच्चे ब्रह्मचारी और सच्चे निष्परिग्रही बनेंगे यह असंभव
है। कारण कि दुनिया के राग के साथ धर्म का राग अशक्य है।
दुनिया के पदार्थ में,
दुनिया के कामों में राग स्थिर है, इसलिए वहां मजा आता है और यहां वह नहीं है, इसलिए
मजा नहीं आता है। पुद्गलानन्दियों की तरफ से दान भी दिया जाता है, वह
भी अधिक मिलने की लालसा से ही दिया जाता है। ऐसों को समझना चाहिए कि यह सच्चा दान
नहीं है, अपितु विलक्षण प्रकार का सट्टा है, सौदा है...। किसी को अच्छे व्यवहार से मान मिलता है, किन्तु
मान के लिए अच्छा व्यवहार करना, यह कैसे हो सकता है...? लोग
अच्छा कहें, इसलिए अच्छा करना,
इसमें वस्तुतः फल नहीं है...। आज
दान देने पर भी,
धर्म-क्रिया करने पर भी, आत्मा की जो उच्च स्थिति होनी
चाहिए, वह नहीं होती,
इसका कारण यही है कि ‘जिसके लिए धर्म-क्रियाएं करनी
चाहिए, उसके लिए नहीं करते,
अपितु अन्य तुच्छ और हेय वस्तुओं के लिए की जाती है।
‘जगत
के जीवों को ऊंचे लाने के लिए एक धर्म की उपादेयता समझाने की आवश्यकता है।’ अर्थ
और काम तो जगत के जीवों को अनादिकाल से रुचिकर लगे ही हैं। अर्थकाम रुचिकर न लगते
हों, ऐेसा कौनसा जीव है...?
अर्थ-काम प्राप्त करने के लिए कौन प्रयत्न नहीं करता है...? अर्थ-काम के साधन समझने के लिए कौनसी आत्मा तत्पर नहीं है...? इसमें
बिना कहे ही जो करने के लिए दुनिया की आत्माएं तैयार हैं, उस
तरफ दुनिया को खींचना उसमें महत्ता नहीं है। देव, गुरु और धर्म, यह दुनिया
से भिन्न चीज है। इस भिन्न चीज को मानने का प्रयोजन निश्चित न हो, तब
तक दुनिया की आत्माएं दुनिया में भटकने वाली ही हैं। इतना ही नहीं, किन्तु इस
भटकने का अन्त भी नहीं आने वाला है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें