अहंकारी, ईर्ष्यालु, महक्रोधी और पाखण्डी को सामने
वाले में जितने गुण हों, उतने ही दुर्गुण लगते हैं। ऐसे लोगों को नागडा कहा जाता है, अच्छी से अच्छी
चीज भी अच्छे रूप में उनको नहीं लगती है। गुण को गुण के रूप में वह देखते ही नहीं हैं।
इतना ही नहीं, बल्कि गुण भी उनको दोष
रूप में दिखाई देते हैं। हितकर वस्तु भी हितकर रूप में उनके हृदय में नहीं उतरती
है। कारण कि मिथ्यात्व के उदय से सब उल्टा ही दृष्टिगोचर होता है। जमाली जैसे ने
भी मिथ्यात्व के उदय से ‘भगवान भूले’ ऐसा बोला और ऐसा जमाली
ने कहा तो उसके पीछे दूसरे अज्ञानी भी ऐसा बोलना सीख गए। मूर्खों की टोली के
द्वारा एक बडे और अच्छे पुरुष को भी खराब कहलाने में कितनी देर लगती है...? बाजार के अच्छे पुरुष को भी मूर्ख समाज में बदनाम
करने में कितनी देर लगती है..? चार नागे खडे होकर बोल दें, इतनी देर लगती है...आज के राजनीतिक परिदृश्य में भी यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो
रहा है और इसीलिए यह कहावत भी है कि “नागडे से दूरी भली”...! इसलिए ऐसों के साथ बात भी करनी या नाता-रिश्ता रखना, यह सब ही भयंकर है...। (कहावत है ‘नागा रे नौपत वाजे, दो धडाका वत्ता वाजे’, नागे के क्या फर्क पडता है, इज्जत, इज्जत वाले की जाती है। ‘नागे का नाक काटो तो सवा गज बढता है।’) बचना और डरना इज्जत वाले को ही चाहिए।
व्यवहार कहता है कि व्यवहार करना भी पडे तो समान शील
और कुल वाले के साथ ही रखना चाहिए, किन्तु दुःशीलियों, कुशीलियों के साथ व्यवहार नहीं रखना चाहिए। कारण कि उनके साथ व्यवहार रखने में
बडा नुकसान है। उनके पास खडे रहने में, उनको घर बुलाने में और उनके घर जाने आदि में अर्थात् सब प्रकार से अच्छे
मनुष्य ही कलंकित होते हैं। काले में दाग कहां से लगेगा...? सफेद में जरा भी मैल हो तो भी दिखाई देता है। काला
कहता है कि ‘मेरे में दाग है...?’ तो उत्तर में कहना ही पडेगा कि ‘भाई! दाग तो उजले-सफेद में होता है, कारण कि तू तो पूर्णतया काला ही है, यह याद रखना..।’ किसी-किसी बात में अपवाद भी होता है, पर इसकी कीमत नहीं होती है। इसलिए धर्म की कोई भी बात
पाखण्डी को नहीं रुचती, इस प्रकार सामान्य रूप से कह सकते हैं। ज्यों-ज्यों उसे अधिक महत्व मिलता है, त्यों-त्यों उसके अन्दर का उन्माद भी बढता जाएगा और
इसीलिए ही वह संसार में भटकता है। बिना कारण के वे आत्माएं अखण्ड रूप से पाप बांध
कर संसार में भटकती हैं। कारण कि पापी आत्माओं का स्वभाव ही ऐसा होता है...।-सूरिरामचन्द्र
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