शिक्षण से क्या तात्पर्य है? शिक्षण से हम में वक्रता न आकर
कोमलता उत्पन्न होनी चाहिए। शिक्षित होने का अर्थ है- सीधा, सादा और सरल प्रकृति का बनना। शिक्षण प्राप्त करते समय पूर्ण अंकुश में रहना
चाहिए। अंकुश मनुष्य को सही अर्थ में मनुष्य बनाता है। ‘मैं कौन हूं, मुझे क्या करना चाहिए?’ इन और ऐसी बातों का अभ्यास जो कोई महापुरुष करा सके, हमारी चेतना को जागृत और झंकृत कर सके, उन्हीं की निश्रा में रहकर हमें ऐसा शिक्षण लेना चाहिए, यही वास्तविक शिक्षण है।
आप यदि अच्छी बातों को अंगीकार न करें और बुरी बातों को त्यागें नहीं, उसमें हमें क्या हानि है? ‘आप हमें पूजेंगे या हमें गाली
देंगे’, ऐसी बातों का भय हमें नहीं है।
हम तो उपकारियों की आज्ञानुसार जो-जो वस्तु आपको बिगाडने वाली है, उन्हें बिना किसी लाज-संकोच के आपको कह देना चाहते हैं। जो समझेंगे और मानेंगे
उनका कल्याण हो जाएगा और जो विपरीत भाव वाले हों, उनके लिए तो यही है कि ‘जैसा उनका भाग्य’। यदि हम आप से प्रभावित हो
जाएं तो हम कर्तव्य च्युत होते हैं। इसलिए ठकुर सुहाती नहीं, खरी-खरी कहने का ही हमारा कर्तव्य है।
आप अर्थ और काम में लिप्त व आसक्त हैं, उनसे आपको बचाने का प्रयत्न हमें करना है। आप बचना चाहते हैं या नहीं, आप बच सकेंगे या नहीं; परन्तु विशुद्ध बुद्धि से
विशुद्ध प्रयत्न करने वाले को तो लाभ ही होगा। जब तक हम में उपकार वृत्ति और
आज्ञापालन है, तब तक हम अपने कर्तव्य से
भ्रष्ट नहीं होंगे, यह निश्चित है। इस जीवन में
अर्थ एवं काम की प्रवृत्ति जीवन को दूषित-कलंकित करने वाली है और वैमनस्य बढाने
वाली है। अतः विश्व के परम उपकारकों ने एक ही बात कही है कि ‘यदि सुखी होना हो तो ऐसे बन जाओ कि आप अपने कार्य-कलापों से किसी के लिए
दुःखदायी सिद्ध न हों।’ ऐसा कब संभव है? हिंसा आदि सब वस्तुओं का त्याग कर डालो तो ही ऐसा संभव हो सकता है। मात्र एक
विषय-वासना में से सैकडों दुर्गुण स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं। पहले राग और फिर
उसमें से द्वेष, क्रोध, प्रपंच आदि अनेक दुर्गुण प्रकट हो जाते हैं।
वे कहां तक पहुंचेंगे? तो बताया गया है कि उसकी कोई
सीमा, मर्यादा और अवधि नहीं है। अतः उससे सावधान हो जाओ, भय खाओ और रुक जाओ। देह की ममता से दूर हटकर आप आत्मा की तरफ ध्यान दीजिए और
आत्मोद्धार के लिए सच्चे ज्ञानियों की इस जीवन में शरण स्वीकार करेंगे तो आपने
बहुत कुछ उपार्जित कर लिया, ऐसा कहा जा सकेगा। सभी को इस
प्रकार आत्मानुलक्षी बनना है, जड वस्तुओं के सेवन से परांगमुख
बनना है, मित्रता आदि चार भावनाओं में रत
बनना है। उनके योग से हिंसा आदि का त्यागी बनना है और ऐसे व्यवहार से इस मानव जीवन
को सार्थक करना है, ताकि निकट भविष्य में आप
मुक्ति-सुख के भोक्ता बन सको। -आचार्यश्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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