रविवार, 31 जनवरी 2016

दुनियावी वस्तुओं के पीछे भागना मूर्खता



उपकारी महापुरुषों ने हमें आत्मा के मूल स्वरूप को प्रकट करने का मार्ग बताया है, उसी का नाम धर्म है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ध्येय से ही धर्म आचरण करना चाहिए। दुनियावी वस्तुओं में सुख देने की शक्ति नहीं है, यदि होती तो वे चीजें किसी को सुखदायी और किसी को दुःखदायी लगे ऐसा न होता। इतना ही नहीं, दुनियावी वस्तुएं चाहे जितनी मेहनत और पाप करके प्राप्त की हो तो भी उनकी सुरक्षा और उनका भोग व्यक्ति की इच्छा के अधीन नहीं है।

मेहनत और पाप करने के पश्चात भी जिसका भाग्य होता है, उसी को दुनियावी वस्तुएं प्राप्त होती हैं। दुनियावी वस्तुएं मिलने के बाद भी जिसका भाग्य हो वो ही व्यक्ति उन्हें भोग सकता है। भाग्य में न हो तो देनदार कर्ज न चुकाए, घर में चोरी हो जाए, खेती-व्यापार में नुकसान हो जाए, आग लग जाए। इस प्रकार अनेक कारणों से प्राप्त वस्तुएं भी चली जाती हैं। कदाचित् भाग्य योग से रह जाएं और भोगने का भाग्य न हो तो ऐसी बीमारी आ जाती है, जिस कारण खाना-पीना, ओढना-पहिनना बंद हो जाता है। कदाचित् भाग्य अनुकूल हो और वस्तुएं भोगने को भी मिलें, तब भी अंत में तो उन सबको यहीं छोडकर अकेले ही जाना पडता है।

इसलिए दुनियावी वस्तुओं में सुख मानने में बुद्धिमत्ता नहीं है। इन नाशवंत और पराधीन वस्तुओं की प्राप्ति, सुरक्षा और भोग में मशगूल बनकर असीम पुण्य योग से प्राप्त इस मनुष्य जन्म को पापों से मलीन करना, सिर्फ मूर्खता ही है। ऐसी मूर्खता कर सुख की आशा रखना, यह तो महामूर्खता है। ज्ञानी महापुरुषों ने इस मूर्खता को छोडने का उपदेश दिया है। उनका तो उपदेश है कि, ‘दुनिया के किसी भी पदार्थ में सुख नहीं है, सुख तो सिर्फ आत्मा में ही रहा हुआ है।इस सत्य को समझकर आत्मा के सुख को प्रकट करने के लिए पाप को त्यागो और सच्चे धर्म के सेवन में तत्पर बनो। उपकारी महापुरुष फरमाते हैं कि ज्ञान-चक्षु खोलो, वस्तु-स्थिति को समझो।

दुनिया के नाशवंत पराधीन पदार्थों के संयोग से सुख मिलता है’, इस भ्रम को दूर कर आत्मा में रहे शाश्वत सुख को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनो। पुण्योदय से प्राप्त दुनियावी वस्तुओं का भी मोह छोडो, क्योंकि उन वस्तुओं में सुख मानकर भोग में पडोगे तो पाप का बंध होगा, जिसके फलस्वरूप पुनः दुःख प्राप्त होगा। पुण्योदय से प्राप्त दुनियावी वस्तुओं का भी त्याग करना और दुःख में भी खेद न कर, धर्म का आचरण करना, यही सच्चे सुख का श्रेष्ठ मार्ग है। महान पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल व सार्थक बनाने के लिए यही एक मार्ग है। पूर्व के अनंत भवों की तरह यह भव भी निरर्थक चला गया तो वापस आर्य संस्कृति, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म का योग कब मिलेगा, कहा नहीं जा सकता।-सूरिरामचन्द्र

अर्थ-काम भाग्याधीन हैं



धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’, इन चार पुरुषार्थों में अर्थ और काम तो नाम के ही पुरुषार्थ कहे हैं।कारण कि अर्थ और काम की प्राप्ति स्वतंत्र रूप से नहीं है, उनमें अन्य पुण्य वस्तु की अपेक्षा रहती है। दुनिया के सभी लोग अर्थ और काम के लिए रात-दिन मेहनत करते हैं, रात-दिन अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए ही विचार और प्रवृत्ति करते हैं। अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि दुनिया में श्रीमंत कितने और गरीब कितने? भोग की सामग्री से सम्पन्न कितने और भोग की सामग्री से रहित कितने? इससे स्पष्ट है कि पुरुषार्थ करने पर भी इच्छित की प्राप्ति सभी को नहीं होती है।

अर्थ और काम की प्राप्ति इस जन्म के पुरुषार्थ के अधीन होती तो किसी को भी पुरुषार्थ किए बिना अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है, क्योंकि कई लोग ऐसे स्थान में जन्म लेते हैं, जिन्हें लेशमात्र भी श्रम किए बिना अर्थ-काम की प्राप्ति हो जाती है। राजा व श्रीमंत के यहां जन्म लेकर राजा व श्रीमंत बनने वालों ने इस जन्म में कौनसा पुरुषार्थ किया था? किसी को बिना किसी मेहनत के विपुल सम्पत्ति का स्वामीत्व प्राप्त हो जाता है, उसमें इस जन्म की मेहनत कहां थी? इससे सिद्ध होता है कि सिर्फ इस जन्म के पुरुषार्थ से अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होती है, अपितु पुरुषार्थ करने पर भी उसी को अर्थ-काम की प्राप्ति होती है, जिसने पूर्व भव में पुण्यकर्म का उपार्जन किया हो। जिसने पूर्वभव में पुण्य उपार्जन नहीं किया, उसे लाख प्रयत्न करने पर भी इस जन्म में इच्छानुसार अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होती है।

जिस प्रकार बिना श्रम किए अर्थ-काम की प्राप्ति किसी भाग्यशाली को होती है, उसी प्रकार अर्थ-काम का भोग भी भाग्यशाली ही कर सकता है। भाग्य न हो तो घर में मेवा-मिष्ठान्न व अनाज के भण्डार भरे पडे हों तो भी मूंग के पानी या छाछ पर जिन्दा रहना पडता है। जिसका भाग्य नष्ट हो गया हो, वह लाख कोशिश करे तो भी उसे राजगद्दी छोडनी पडती है। बडे श्रीमंत को भी दर-दर भीख मांगनी पडती है। इस प्रकार अर्थ-काम की प्राप्ति, उनका भोग और उनका संरक्षण इस जन्म के पुरुषार्थ के अधीन नहीं है, भाग्याधीन है। पूर्वोपार्जित पुण्याधीन है। इन सब बातों से यह स्पष्ट होता है कि दुनिया भले अर्थ और काम को पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करे, लेकिन ये नाम के ही पुरुषार्थ हैं।

इस दुनिया में अर्थ-काम की जो अनुकूलता प्राप्त होती है, वह पुण्य के योग से और जो कुछ विडम्बनाएं प्राप्त होती हैं, वह पाप के योग से होती हैं। इस बात से सभी आस्तिक दर्शनकार इत्तफाक रखते हैं। सत्कर्म से पुण्य और दुष्कर्म से पापबंध होता है। सत्कर्म भी धर्म का ही एक प्रकार है, इसलिए यह मानना पडेगा कि धर्म के बिना अर्थ-काम की भी सिद्धि नहीं होती है। मोक्ष की सिद्धि भी धर्म के बिना नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि दुनिया में चार पुरुषार्थ कहे भले ही हों, किन्तु धर्म ही सच्चा पुरुषार्थ है। चूंकि सच्चे और अक्षय सुख की प्राप्ति मोक्ष में ही संभव है, इसलिए ज्ञानियों ने अर्थ-काम को हेय मानकर सिर्फ मोक्ष के लिए ही धर्म करने का उपदेश दिया है।-सूरिरामचन्द्र

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

मोक्ष साध्य है और धर्म उसका साधन



इस दुनिया में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’, ये चार पुरुषार्थ माने जाते हैं। चारों पुरुषार्थों को उपादेय मानने वाले समझते हैं कि हर व्यक्ति को अपने-अपने उचित समय में चारों पुरुषार्थों का सेवन करना चाहिए, इनमें से किसी पुरुषार्थ की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चारों पुरुषार्थों का सेवन ही दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति का मार्ग है।

अनंतज्ञान के योग से सुख-दुःख के वास्तविक निदान और सच्चे सुख के ज्ञाता ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ जगत में माने जाते हैं, किन्तु अर्थ और काम तो नाम के ही पुरुषार्थ हैं। परमार्थ से तो ये दोनों अनर्थभूत ही हैं। अर्थभूत पुरुषार्थ एक मात्र मोक्ष ही है और संयम आदि दस प्रकार का धर्म उसका माध्यम है। इस दृष्टि से देखा जाए तो धर्म ही सच्चा पुरुषार्थ है, क्योंकि धर्म पुरुषार्थ की साधना में मोक्ष पुरुषार्थ की साधना आ जाती है। धर्म की पूर्ण आराधना के फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि मोक्ष साध्य है और धर्म उसका साधन। मोक्ष का सुख ही सच्चा सुख है। वह सुख, दुःख मात्र से रहित, सम्पूर्ण तथा अक्षय अर्थात् कभी नष्ट नहीं होने वाला है।

जगत के जीवों को ऐसा ही सुख चाहिए, क्योंकि किसी को ज्यादा सुख में थोडा भी दुःख आ जाए तो वह पसन्द नहीं आता है। जब तक पूर्ण सुख न मिले, तब तक सुख पाने की इच्छा बनी रहती है। अपूर्ण सुख भी दुःखरूप बन जाता है। अतः हर व्यक्ति चाहता है कि मेरा सुख स्थाई बना रहे। अज्ञानता के कारण भले ही संसारी जीव स्वयं को पसन्द सुख के यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त न कर सके तो भी उनकी मनोदशा समझ ली जाए तो संक्षेप में कह सकते हैं कि उन्हें नाम मात्र के भी दुःख से रहित सम्पूर्ण और स्थाई सुख चाहिए। जहां ऐसे सुख की बात आती है, वहां अपने को ज्ञानी मानकर दुनिया को सच्चे सुख का मार्ग बतलाने का दावा करने वाले अपूर्ण ज्ञानी मोहित हो जाते हैं, परन्तु जो अनंतज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वे तो सबकुछ जानते हैं। वे फरमाते हैं कि जगत के जीवों को जो दुःखमात्र से रहित, सम्पूर्ण और शाश्वत सुख चाहिए, वह दुनिया में तो कहीं नहीं मिल सकता है, ऐसा सुख तो सिर्फ मोक्ष में है।

संसारी लोग पौद्गलिक पदार्थों के योग में सुख की कल्पना कर रहे हैं, परन्तु पौद्गलिक योग से सर्वथा मुक्त बनने पर ही ऐसे वास्तविक सुख को पा सकते हैं। अपनी आत्मा जड कर्म के योग से सर्वथा मुक्त बनकर मोक्ष प्राप्त करेगी, तभी दुःख मात्र से रहित, सम्पूर्ण व स्थाई सुख पा सकती है। इसी कारण ज्ञानी भगवंत मोक्ष की साधना को ही प्रधानता देते हैं।

धर्म के सेवन बिना मोक्ष की प्राप्ति अशक्य है, इसीलिए ज्ञानी फरमाते हैं कि अर्थ और काम ये नाम के ही पुरुषार्थ हैं। मोक्ष ही अर्थभूत है और संयम आदि दसविध धर्म उसका माध्यम हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मोक्ष के लिए ही धर्म का सेवन करना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

दृष्टि-विपर्यास दूर करें



कई लोग थोडा-बहुत धर्म करते हैं और जब ऐच्छिक पदार्थ नहीं मिलते हैं, तब धर्म को दोष देते हैं। पूर्व में जो पाप किए हैं, उनके फल भी तो भोगने पडेंगे, यह बात वे नहीं सोचते और धर्म को कोसने लगते हैं। ऐसे लोग तो अज्ञानता से ही धर्म की निंदा करने लग जाते हैं। दूसरी बात यह है कि वास्तव में धर्म-पालन पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति या पोषण के लिए नहीं, अपितु आत्म-गुणों को प्रकट करने के ध्येय से करना चाहिए। धर्म का ध्येय मोक्ष से विपरीत नहीं होना चाहिए। मोक्ष के ध्येय से और ज्ञानी की आज्ञानुसार किया गया धर्म अंत में अवश्य ही मोक्ष में पहुंचाता है। मोक्ष प्राप्ति के पूर्व दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सामग्री देने की ताकत भी धर्म में ही है, किन्तु मोक्षार्थी मिली हुई उस सामग्री के भोग में ही उलझकर नहीं रहता।

किसी को पाप करने पर भी धन मिल जाता है, वह धन पाप से नहीं, अपितु पूर्व के पुण्य योग से मिला है, यह बात आप सोचते नहीं हैं। धर्म पालन करने पर भी यदि कदाचित् विपत्ति आए तो धर्म के प्रति द्वेष न कर सोचना चाहिए कि यह मेरे पूर्व में किए गए पापों का परिणाम है। लेकिन, आज दृष्टि-विपर्यास बढ गया है। सर्वथा दुःख-मुक्ति और एकांत सुखमय शाश्वत जीवन पाने के लिए हमें इस दृष्टि-विपर्यास से मुक्त होना पडेगा। आत्मा, आत्म-गुण और आत्म-गुणों का विकास करने वाली सामग्री सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, स्वाध्याय, तप, प्रत्याख्यान, संयम के प्रति प्रशस्त राग-भाव बढाना होगा। इन्हें छोड अन्य दुनियावी वस्तुओं को अपने से पर मानकर, उसके संबंध से छूटने के लिए प्रयत्नशील बनना पडेगा। पूर्व के पुण्योदय से प्राप्त सामग्री का उपयोग भोग में न कर आत्म-गुणों को विकसित करने में करना चाहिए। पूर्व के पुण्योदय से प्राप्त सामग्री के भोग से नए पाप बांधना, इसमें बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु उसके आत्मिक सदुपयोग में बुद्धिमत्ता है।

दुःख आने पर भी घबराएं नहीं और यह मेरे पूर्व में किए गए पाप कर्म का फल है’, यह सोचकर दुःख को समभाव से सहन करना चाहिए, जिससे पाप का फल भोगते हुए अन्य पापकर्मों से आत्मा बंधती नहीं है। आज तो पुण्योदय से प्राप्त सुख और पापोदय से प्राप्त दुःख, दोनों ही स्थिति में आत्मा नए-नए पाप-कर्मों का बंध करती है। इस कारण भविष्य भी बिगड जाता है। इस स्थिति को सुधारने के लिए अपनी दृष्टि को बदलना चाहिए। जड पदार्थ में रही आत्म-बुद्धि को दूर करना चाहिए और वैसे ही आत्मा के प्रति जो उपेक्षा-भाव है, उसे भी दूर करना चाहिए।

स्व अर्थात् अपनी आत्मा, पर अर्थात् जड से जकडी हुई है। अतः पर के योग से छूटने के लिए जो-जो उपयोगी सामग्री हो, उसे प्राप्त करना चाहिए और उसका सदुपयोग करना चाहिए। यह सब तब शक्य है, जब आप सच्चे आत्मवादी बनें। पाश्चात्य लोग प्रायः जडवादी हैं। आज वह हवा हमारे देश में भी फैल रही है। इसलिए उससे बचे बिना और आत्मवादी हुए बिना कल्याण होने वाला नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

दुःख-मुक्ति और सुख प्राप्ति कैसे हो?



परम उपकारी ज्ञानी भगवंत फरमाते हैं कि अपने कल्याण की कामना को पूर्ण करने के लिए अन्य सभी उपायों का त्याग कर एक मात्र धर्म का ही सेवन करना चाहिए। धर्म के अलावा जितने भी उपाय हैं, वे सभी पापरूप हैं, उनसे कल्याण नहीं होता, बल्कि अकल्याण में ही वृद्धि होती है। अतः कल्याण की कामना हो तो पाप-प्रयत्नों से पीछे हटकर परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट सद्धर्म के आचरण में अप्रमत्त बनना चाहिए। मतलब कि केवल परमात्मा का घडी-दो घडी स्मरण कर लिया या जाप कर लिया, एक बार पूजा करली, केवल इससे कल्याण होने वाला नहीं है। प्रभु ने जो कुछ कहा है, उसे समझकर जीवन में आत्मसात् करना, यह महत्त्वपूर्ण है। परमात्मा की आज्ञा को जीवन-व्यवहार में उतारे बिना, दुःख और संसार से छुटकारा संभव नहीं है। अब इसके लिए मार्गदर्शन कौन करे? परमात्मा तो कल्याण-मार्ग बताकर चले गए!

परमात्मा अरिहंत देव के सच्चे प्रतिनिधि हैं, सुगुरु, आचार्य भगवन्। वे ही परमात्मा की आज्ञाओं का मर्म समझा सकते हैं और वे ही इस संसार में कल्याण की राह बता सकते हैं, वे ही अखण्ड सुख, परम आनंद और आत्म-कल्याण की राह पर चलने में सहायक हो सकते हैं। कंचन-कामिनी के त्यागी, मादक-पदार्थों और अन्य व्यसनों से रहित, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन तथा परिग्रह आदि से मुक्त, परमात्मा की आज्ञानुसार संयम जीवन जीने वाले, निर्दोष भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाले और जगत के जीवों को परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट मोक्ष मार्ग का उपदेश देने वाले गुरुदेव! ऐसे निर्ग्रन्थ रूप से विचरण करने वाले गुरुदेव की निश्राय स्वीकार करें और उनके बताए अनुसार धर्म का आचरण करें।

धर्म से साध्य क्या? परमात्म स्वरूप! अर्थात् पांचों इन्द्रियों की विषय-वासना और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि का सर्वथा नाश करना। ऐसे स्वरूप की प्राप्ति के लिए मन-वचन-काया से हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग। ऐसे हिंसादि पांच पाप न करना, न करवाना और न अनुमोदना करना। इस प्रकार का आचरण करने के लिए स्वजनों का त्याग करें, घर का त्याग करें, इन्द्रिय निग्रह करें और तपोमय जीवन जीएं।

इस प्रकार का उच्च और संयमी जीवन जीने की जिसमें शक्ति न हो, वह सुदेव-सुगुरु-सुधर्म पर श्रद्धा रखकर यथाशक्ति हिंसा आदि पापों से निवृत्त बने, संयम के अभ्यास रूप श्रावक जीवन के आचरण में प्रयत्नशील बने तथा परमात्मा की आज्ञा में तीव्र रस पैदा करने के लिए परमात्मा का पूजन आदि करे, क्योंकि पाप के त्याग और धर्म के आचरण के बिना सच्ची शान्ति वाला सुख मिलता नहीं है। पाप का भय पैदा हो और धर्म में रस बढे, तभी दुःख मुक्ति और सुख प्राप्ति संभव है।-सूरिरामचन्द्र

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

धर्मो रक्षति रक्षितः



जो धर्म की सुरक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यह बात तो प्रायः सभी मानते हैं, लेकिन आज धर्म के प्रति जैसा आदरभाव चाहिए, वैसा है नहीं। यदि आप अपने आत्म-धर्म की रक्षा करते तो आज जो दशा हो रही है, वैसी दशा नहीं होती। आप अपने आत्म-धर्म की रक्षा करोगे तो, वह आप के आत्मा की रक्षा करेगा। एक मात्र धर्म में ही दुःख-मुक्त कराने और सुख-प्राप्त कराने की शक्ति है; फिर भी आज व्यक्ति धर्म के प्रति कितना बेपरवाह है। व्यक्ति अपनी संतानों को धन-प्राप्ति व भोग का शिक्षण दिलाने में सावधान है, किन्तु धर्म के शिक्षण के प्रति उनका कोई रुझान नहीं है। धर्मो रक्षति रक्षितः’, यह बोलते-मानते हैं, पर सतही तौर पर यदि हृदय की गहराई से यह बात उठती तो आप अपनी संतानों को धर्म का शिक्षण दिए बिना नहीं रहते।

आपकी संतानें बुद्धिहीन और रोगी बन जाए, तो आपको दुःख होता है, परन्तु आपकी संतानें अनीतिवाली और अधर्मी बन जाए, तो उसका दुःख कितनों को होता है? संतानों के व्यावहारिक शिक्षण के लिए सभी प्रयत्न करते हैं, उसके लिए चिंतित होते हैं, लेकिन संतानों के धार्मिक शिक्षण के लिए कितने लोग उसी प्रकार से चिंतित होते हैं और प्रयास करते हैं? आपका पुत्र अनीति वाला हो, अधर्मी हो, दूसरों को ठगने में माहिर हो और खुद कहीं ठगा नहीं जाता हो, तो क्या आपको दुःख होता है? ऐसी स्थिति में आपको आनंद के बजाय दुःख होता हो और अधर्मी बनकर इसने कुल को लजाया है’, ऐसा लगे तो धर्मो रक्षति रक्षितः’, इस बात में आपका दृढ विश्वास है, ऐसा कह सकते हैं। संतानों का अधर्म देखकर खेद पाने वाले इस दुनिया में विरले लोग ही होते हैं।

प्राचीनकाल में आज से विपरीत परिस्थिति थी। परम्परागत व्यवसाय का शिक्षण घर पर स्वाभाविक रूप से मिल जाता था और धर्म के शिक्षण के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता था। इस कारण कुटुम्ब में स्वाभाविक सम्प रहता और अच्छे आचार-विचार रहते थे। आज बेटा बाप का नहीं रहा, भाई भाई का नहीं रहा, भाई-बहिन का प्यार स्वार्थ की भेंट चढ गया, पति-पत्नी में अहम की लडाई आम बात है। आर्य प्रजा का आज कितना अधःपतन हो गया है? इस अधःपतन का कारण है परिवारों में से धर्म का शिक्षण चला गया। धर्म के प्रति अनादर बढ गया। दुनियावी स्वार्थ-वृत्ति को बढाने वाला शिक्षण मुख्य हो गया है और वैसे ही स्वार्थी संस्कार मिलने लगे हैं। दुनियावी स्वार्थ की लालसा बढने से अच्छे आचार-विचारों का लगभग नाश हो गया है। ध्यान रहे कि हमें वर्तमान में जो पौद्गलिक सामग्री का सुख मिला है, वह पूर्व के पुण्योदय के कारण मिला है। इस जीवन में हमने उससे पाप का उपार्जन किया और आत्म-धर्म की रक्षा नहीं की तो अगला भव अत्यंत कष्ट से भरा होगा।-सूरिरामचन्द्र