गुरुवार, 28 जनवरी 2016

दृष्टि-विपर्यास दूर करें



कई लोग थोडा-बहुत धर्म करते हैं और जब ऐच्छिक पदार्थ नहीं मिलते हैं, तब धर्म को दोष देते हैं। पूर्व में जो पाप किए हैं, उनके फल भी तो भोगने पडेंगे, यह बात वे नहीं सोचते और धर्म को कोसने लगते हैं। ऐसे लोग तो अज्ञानता से ही धर्म की निंदा करने लग जाते हैं। दूसरी बात यह है कि वास्तव में धर्म-पालन पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति या पोषण के लिए नहीं, अपितु आत्म-गुणों को प्रकट करने के ध्येय से करना चाहिए। धर्म का ध्येय मोक्ष से विपरीत नहीं होना चाहिए। मोक्ष के ध्येय से और ज्ञानी की आज्ञानुसार किया गया धर्म अंत में अवश्य ही मोक्ष में पहुंचाता है। मोक्ष प्राप्ति के पूर्व दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सामग्री देने की ताकत भी धर्म में ही है, किन्तु मोक्षार्थी मिली हुई उस सामग्री के भोग में ही उलझकर नहीं रहता।

किसी को पाप करने पर भी धन मिल जाता है, वह धन पाप से नहीं, अपितु पूर्व के पुण्य योग से मिला है, यह बात आप सोचते नहीं हैं। धर्म पालन करने पर भी यदि कदाचित् विपत्ति आए तो धर्म के प्रति द्वेष न कर सोचना चाहिए कि यह मेरे पूर्व में किए गए पापों का परिणाम है। लेकिन, आज दृष्टि-विपर्यास बढ गया है। सर्वथा दुःख-मुक्ति और एकांत सुखमय शाश्वत जीवन पाने के लिए हमें इस दृष्टि-विपर्यास से मुक्त होना पडेगा। आत्मा, आत्म-गुण और आत्म-गुणों का विकास करने वाली सामग्री सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, स्वाध्याय, तप, प्रत्याख्यान, संयम के प्रति प्रशस्त राग-भाव बढाना होगा। इन्हें छोड अन्य दुनियावी वस्तुओं को अपने से पर मानकर, उसके संबंध से छूटने के लिए प्रयत्नशील बनना पडेगा। पूर्व के पुण्योदय से प्राप्त सामग्री का उपयोग भोग में न कर आत्म-गुणों को विकसित करने में करना चाहिए। पूर्व के पुण्योदय से प्राप्त सामग्री के भोग से नए पाप बांधना, इसमें बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु उसके आत्मिक सदुपयोग में बुद्धिमत्ता है।

दुःख आने पर भी घबराएं नहीं और यह मेरे पूर्व में किए गए पाप कर्म का फल है’, यह सोचकर दुःख को समभाव से सहन करना चाहिए, जिससे पाप का फल भोगते हुए अन्य पापकर्मों से आत्मा बंधती नहीं है। आज तो पुण्योदय से प्राप्त सुख और पापोदय से प्राप्त दुःख, दोनों ही स्थिति में आत्मा नए-नए पाप-कर्मों का बंध करती है। इस कारण भविष्य भी बिगड जाता है। इस स्थिति को सुधारने के लिए अपनी दृष्टि को बदलना चाहिए। जड पदार्थ में रही आत्म-बुद्धि को दूर करना चाहिए और वैसे ही आत्मा के प्रति जो उपेक्षा-भाव है, उसे भी दूर करना चाहिए।

स्व अर्थात् अपनी आत्मा, पर अर्थात् जड से जकडी हुई है। अतः पर के योग से छूटने के लिए जो-जो उपयोगी सामग्री हो, उसे प्राप्त करना चाहिए और उसका सदुपयोग करना चाहिए। यह सब तब शक्य है, जब आप सच्चे आत्मवादी बनें। पाश्चात्य लोग प्रायः जडवादी हैं। आज वह हवा हमारे देश में भी फैल रही है। इसलिए उससे बचे बिना और आत्मवादी हुए बिना कल्याण होने वाला नहीं है।-सूरिरामचन्द्र

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