गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

प्रत्येक बात में वैराग्य हो


आज की विडम्बनाओं और तथाकथित नाम के जैनियों की बात छोड़ दें तो इतिहास इस बात का साक्षी है कि जैन कुल में जो जन्मा हो और जिसमें जैन कुल के संस्कार हों, उसमें वैराग्य न हो, ऐसा नहीं हो सकता। जैन कुल में तो माता स्तनपान के साथ ही वैराग्य का पान कराती है, ऐसा कहा जा सकता है। क्योंकि, जैनकुल की प्रत्येक बात में प्रायः वैराग्य का प्रभाव होता है। खाने की बात हो या पीने की बात हो, लाभ की बात हो या हानि की बात हो, भोगोपभोग की बात हो या त्याग-तप की बात हो, जन्म की बात हो या मरण की बात हो, जैन कुल में होने वाली प्रायः प्रत्येक बात में वैराग्य के छींटे तो होते ही हैं।

जैन जो बोलते हैं, उससे समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि वैराग्य का प्रभाव है। आज यह अनुभव विरल होता जा रहा है, यह दुर्भाग्य है। अन्यथा पुण्य, पाप, संसार की दुःखमयता, जीवन की क्षणभंगुरता, वस्तुओं की नश्वरता, आत्मा की गति, मोक्ष आदि की बातों का प्रभाव प्रायः जैन की प्रत्येक बात में होता है। क्योंकि उसके हृदय में यही (वैराग्य) होता है। अच्छा या बुरा जो कुछ भी होता है, उसके विषय में अथवा कुछ नया करने का अवसर आए, उस समय जो बात होती है, उसमें सच्चे जैन जो बात करने वाले होते हैं, तो वैराग्य के छींटे उसमें न हों, यह नहीं हो सकता। संसार का सुख मिलने की स्थिति में, ‘संसार के सुख में और संसार के सुख की सामग्री में बहुत आसक्त नहीं होना चाहिए’, ऐसी बात होती है। जब संसार का सुख चला जाता है और शोक की स्थिति होती है, तब शोक की अपेक्षा उसकी नश्वरता आदि की बात होती है। यह वैराग्य के घर की बात है न?

वैराग्य, मिथ्यात्व के क्षयोपशमादि से होने वाला कार्य है और विरति, चारित्र मोहनीय के क्षयोपशमादि से होने वाला कार्य है। विराग, मिथ्यात्व की मंदता के योग से पैदा होता है। अर्थात् प्रथम गुण स्थानवर्ती मंद मिथ्यादृष्टियों में भी विराग हो सकता है। सम्यग्दृष्टि में विराग अवश्य होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन को पाए हुओं में विराग नहीं होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मोक्ष का भाव भी सम्यग्दर्शन प्रकट होने के पहले मिथ्यात्व की मंदता में आ सकता है।

आजकल, उच्च समझे जानेवाले कुलों में भी कैसी स्थिति पैदा होती जा रही है? लडका धर्म करता है, या धर्म करने के लिए तैयार होता है तो पिता उसमें बाधा बनता है, परन्तु लडका धन और भोग के लिए चाहे जो उल्टे-सीधे काम करे, तो भी उसका पिता अन्याय-अनीति करते हुए बेटे को नहीं रोकता है। पहले अच्छे कुटुम्बों में यह स्थिति थी कि धर्म करने का मन होना, कोई सरल बात नहीं है’, ऐसा वे जानते थे। इसलिए लडके को धर्म करने का मन होने की बात जानकर उन्हें प्रसन्नता होती थी और लडका धन-भोग के विषय में अन्याय-अनीति के मार्ग पर न चला जाए, इसकी सावधानी रखते थे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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