शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

सम्यक्त्व रहित तप, तप नहीं



व्यक्ति के जीवन में यदि शुद्ध दर्शन नहीं, शुद्ध-विशुद्ध श्रद्धा नहीं और सम्यक्त्व नहीं है तो उसके अभाव में वह कितना ही धर्म कर ले, सब प्रभावहीन ही सिद्ध होगा। धर्म स्थान में आने वाले, धर्म क्रियाएँ करने वाले वास्तव में कितने धार्मिक हैं, यह उनके सम्यक्त्व की शुद्धि पर निर्भर करता है। जो धर्म का प्रदर्शन करते हैं, धार्मिक होने का दम भरते हैं, यदि उनकी श्रद्धा सम्यग् न हो, तो उन्हें क्या कहेंगे? श्रद्धा के अभाव में सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता। जिनके जीवन में, विचारों में धर्म अवतरित नहीं हुआ है, वे वस्तुतः अभी धर्म के गहन तत्त्व से अनभिज्ञ ही कहे जाएंगे। मास खमण की तपश्चर्या करके पारणे में कुश या चावल के अग्र भाग पर आए, उतना सा आहार ले और फिर से मास खमण पचक्ख ले, इस प्रकार जो तपस्या की जाती है, वह कितनी उग्र तपस्या होगी, लेकिन उसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है, सच्ची श्रद्धा नहीं है, तो वह इतना कठोर तपस्वी धर्म के तत्त्व के विषय में कुछ नहीं जानता। उसका वह तप, वह कायक्लेश अध्यात्म की कोटि में नहीं गिना जाएगा, क्योंकि वह सम्यक्त्व से रहित है। यदि सम्यक्त्व विशुद्ध है, यदि हमारी श्रद्धा विशुद्ध है तो धर्म का आचरण धर्म की कोटि में आएगा, अन्यथा वह कुछ मायने नहीं रखता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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