मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

कृतघ्न नहीं, कृतज्ञ बनें



अच्छा हो तो किसी का गुण नहीं मानना और बुरा हो तो किसी को दोष देना, यह अज्ञानता की निशानी है। सज्जन सबके गुणों को याद करते हैं और बुरा हो तो स्वयं की निन्दा करते हैं, जबकि दुर्जन समस्त आदमियों में कोई गुण नहीं देखता, स्वयं की योग्यता ही सिद्ध करता है और काम खराब होने पर दूसरों को दोष दिए बगैर नहीं रहता। सामने वाले व्यक्ति ने आपके लिए अच्छा चिंतन किया, आपका भला हो, इस आशय से उसने प्रयत्न किया और अपने पुण्योदय के योग से उनका वह प्रयत्न सफल भी रहा; किन्तु ऐसा जानते हुए भी हम उसका उपकार न मानें तो स्वयं कृतघ्न ही कहलाएंगे न? कृतज्ञता, यह भी एक अनुपम गुण है। कृतज्ञता गुण सामने वाले की और स्वयं की परहित की भावना को विकसित करता है। कृतघ्न आत्माएं परहित-चिन्तारूप मैत्री की मालिक कभी नहीं बन सकती। स्वयं के ऊपर उपकार करने वाले का उपकार वे गिनते ही नहीं हैं। ऐसे लोग दूसरे पर उपकार करने की वृत्ति वाले बनें, यह असंभव है। सच्ची बात तो यह है कि कल्याणार्थी आत्माएं संसार के सभी प्राणियों का भला चाहती हैं, किसी का भी बुरा नहीं चाहतीं। आत्मा को ऐसा बनाना चाहिए कि वह सबके कल्याण में अपनी प्रवृत्ति दिखाए, लेकिन किसी के अनिष्ट कार्य में भाग न ले, बुरा न चाहे। अनजान में किसी का बुरा हो जाए तो उसका हमें दुःख होना चाहिए। बुरा करने वाले का भी भला हो, यह भावना सदा रहनी चाहिए। मेरे प्रति दुश्मनी रखने वालों का भी कल्याण हो, ऐसा व्यवहार होना चाहिए। जब दुश्मन के भी कल्याण की भावना हो तो अपना अच्छा करने वाले के प्रति उपकार मानने की भावना होनी चाहिए कि नहीं? -सूरिरामचन्द्र

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