रविवार, 6 नवंबर 2016

सवाल क्यों नहीं उठाए जाएं ?



प्रधानमंत्री नरेन्द्रभाई मोदी लोकसभा चुनावों के दौरान देशभर में घूमे. उन्होंने अपनी सभाओं में पांच मुद्दे ही सर्वाधिक जोर-शोर से उठाए हैं। ये पांच मुद्दे हैं- मंहगाई, भ्रष्टाचार, युवा-शक्ति, आपसी भाईचारा-सद्भाव और विकास; लेकिन इन पांचों मुद्दों पर पांच सवाल हैं-1. क्या वे महंगाई को कम कर पाए? या उनके शासन में देश अब तक की सर्वाधिक मंहगाई का दंश झेल रहा है?

दूसरा मुद्दा है भ्रष्टाचार! क्या भाजपा सत्ता में आई तो भ्रष्टाचार खत्म हो गया? क्या भाजपा में कोई भ्रष्ट नेता नहीं है? इस समय जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, क्या वहां भ्रष्टाचार नहीं है? और अब तक भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आपने कौनसे कारगर उपाय किए हैं?

तीसरा मुद्दा है युवा-शक्ति का! नरेन्द्रभाई मोदी अपनी हर जनसभा में युवा भारत का जिक्र करते रहे हैं, किन्तु भाजपा शासित प्रदेशों में ही युवाओं का सर्वाधिक शोषण हो रहा है। एक आठवीं पास चपरासी से कम वेतन है एक व्याख्याता का। एक क्लीनर (सफाई कर्मी) से कम वेतन है एक डॉक्टर, जिला कार्यक्रम अधिकारी, काउंसलर, नर्स व लेब टेक्नीशियन का। एक दिहाडी मजदूर से कम वेतन है डाटा ऑपरेटर व अकाउन्टेंट का। कारण यह है कि एक स्थाई राजकीय कर्मचारी है और दूसरा संविदा पर, यानी सरकार की और अफसरों की मेहरबानी से ठेके पर काम करने वाला। बेरोजगारी का सबसे ज्यादा लाभ कोई उठा रहा है तो वह है कल्याणकारी राज्य का दावा करने वाली सरकारें। ठेके पर कर्मचारी रखना और उन्हें स्थाई कर्मचारियों की तुलना में अधिक योग्यता के बावजूद कम वेतन देना, समान काम के लिए समान वेतन न देना क्या संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन नहीं है?

चौथा मुद्दा है आपसी भाईचारा-सद्भाव! घृणा की राजनीति में समरसता कहां है? क्या नरेन्द्रभाई मोदी यह बात दावे के साथ कह सकते हैं कि वे और उनके नेता जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, वह घृणा और वितृष्णा, नफरत और हिकारत की शब्दावली नहीं है और ऐसी भाषा समाज में समरसता पैदा करेगी?

पांचवां मुद्दा है विकास; लेकिन विकास किसका? उद्योगपतियों और पूँजीपतियों का या आम आदमी का विकास? किसको लाभ हुआ और हो रहा है?

बीच-बीच में उन्होंने सेना के जवानों और पाकिस्तान को लेकर भी बहुत कुछ कहा, किन्तु इसका सबसे पहले राजनीतिकरण कर अपनी विफलताओं को ढाँकने का ही काम उन्होंने किया है। इसी प्रकार किसानों के आँसू पोंछने में भी भाजपा सरकार विफल ही रही है.

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