मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

संसार की शाश्वतता



विद्यमानता की दृष्टि से संसार शाश्वत है और परिवर्तन की दृष्टि से संसार अशाश्वत भी गिना जाता है। अनन्त आत्माएं मोक्ष में जाएं, ऐसा होने पर भी एक निगोद का अनंतवां भाग ही मुक्ति में गया है। इसलिए जीवों का बहुत बडा समूह संसार में रहता ही है। संसार का कभी भी अंत आने वाला नहीं है। संसार तो था, है और रहेगा। सारे संसार का अस्तित्व मिट जाए, ऐसा होता भी नहीं है और होगा भी नहीं। इससे संसार शाश्वत भी है। जीवों की अपेक्षा से संसार अशाश्वत भी है। कारण कि संसार का छेदन कर अनंत आत्माएं मुक्ति में गई हैं। संख्याबद्ध आत्माएं वर्तमान में भी महाविदेह क्षेत्र में से मुक्ति में जा रही हैं और अनंत आत्माएं मुक्ति में जाएंगी।

मोक्षगामी भव्यात्माओं का संसार अशाश्वत होता है। कारण कि संसार छूटता नहीं है, तब तक ही मोक्ष जाना संभव नहीं होता। ऐसा होने पर भी, दूसरे अनंत जीव संसार में होने से संसार तो शाश्वत ही रहता है। किन्तु, मोक्ष को प्राप्त हुई आत्माओं की संसारी मिट जाती है। मनुष्य भव किसी का भी शाश्वत नहीं था, शाश्वत नहीं है और होगा भी नहीं। शाश्वत स्थिति मोक्ष-प्राप्ति के बिना शक्य नहीं है और मोक्ष संसारीपन से मुक्त हुए बिना संभव नहीं है।

संसारीपन से मुक्त होने के लिए एकमात्र अनुपम साधन अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है। श्री जिनेश्वर देवों की आज्ञा की आराधना, संसारी के रूप में हमारी उपस्थिति को नेस्तनाबूद करने की है। श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म की आराधना करने का वास्तविक हेतु यही है कि स्वयं का संसार नष्ट हो। श्री जिनेश्वर देव के स्वरूप को जानने वाले और मानने वाले में स्वयं का अथवा दूसरे का किसी का संसार टिकाए रखने की भावना हो, ऐसा नहीं है। श्री जिनेश्वर देव को पहचानने वाले तो स्वयं के संसार का जैसे-तैसे शीघ्र ही नाश हो, इसी अभिलाषा को सेवन करने वाले होते हैं। जिसको संसार में रहने की रुचि हो, जिनको संसार में रहना अच्छा लगता है, उनमें साधुपन भी नहीं और श्रावकपन भी नहीं है। स्वयं का और सबके संसार के नाश की अभिलाषा रखना, यह ऊॅंची में ऊॅंची कोटि की इच्छा है। आत्मा में भाव-दया प्रकट हुए बिना इस प्रकार की उत्तम इच्छा प्रकटे, यह संभव नहीं है। जीव मात्र के संसार का नाश हो’, ऐसी अभिलाषा की उत्कृष्टता से तो तीर्थंकरत्व पुण्य का उपार्जन होता है। श्री तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना ऐसी ही पुण्याभिलाषा की उत्कटता से होती है। संसार अर्थात् विषय और कषाय। विषय-कषाय का नाश अर्थात् संसार का नाश। जिसके विषय-कषाय दूर हो गए, उसका दुःख भी दूर हो गया। उसका संसार परिभ्रमण भी टल गया है। विषय-कषाय के योग से ही आत्मा को जन्ममरणादि का दुःख भोगना और चार गति चौरासी लाख जीव योनियों में भटकना पडता है। आत्मा स्वभाव से शाश्वत होने पर भी विषय-कषाय के योग से यह दशा भोग रही है। यह मानव-भव उसमें से निकलने के लिए है।-सूरिरामचन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें