सोमवार, 26 जून 2017

प्राणीमात्र के प्रति कल्याण का भाव हो

संसार की स्वार्थ परायणता पर विचार करो। राग-द्वेष और अज्ञान से घिरे हुए तथा उसी कारण से अर्थ और काम में अतिलुब्ध बनी हुई आत्माएं, अपने ही पिता, मां, पत्नी, पुत्र या भाई के वध जैसा भयंकर कोटि का विचार करे, निर्णय करे या उसकी पालना करे तो भी इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। अर्थ और काम की प्राप्ति में ही स्वयं का कल्याण मानकर बैठे हुए लोगों को, स्वयं के कल्पित कल्याण की साधना के लिए कितनी ही बार तो भयंकर में भयंकर कोटि के भी दुष्कृत्यों का आचरण करते हुए विचार नहीं आता है। ऐसी आत्माओं को स्वयं के किंचित स्वार्थ के लिए सामने वाले की पूरी जिन्दगी भी तुच्छ लगती है। स्वयं के क्षुद्र स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों का हरण करते हुए भी, किंचित् भी क्षुब्ध नहीं होने वाली आत्माएं इस युग में बहुत हैं। पूर्व के पुण्य योग से मिली हुई सामग्री का उपयोग वे लोग इस भव में दूसरे जीवों का संहार करने में करते हैं। किन्तु, वे लोग अपने भविष्य को भूल जाते हैं।
शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात् आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।
जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊॅंचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।
मनुष्य मात्र को यह विचार करना चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं। दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।

किसी को दुःख नहीं देना है और किसी का सुख नहीं छीनना है, ऐसा दृढ निश्चय होते ही आप उसका अनुसरण कर देंगे तो आपके लिए अक्षय सुख के द्वार खुलते देर नहीं लगेगी।-सूरिरामचन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें