शनिवार, 31 जनवरी 2015

नव कर्तव्यों का पालन करें



शास्त्रकारों ने, तत्त्वज्ञानी महापुरुषों ने, विश्व के जीव मात्र का भला चाहने वालों ने यह उपदेश दिया है कि संसार की नाशवंत वस्तुओं को एक न एक दिन तो छोडना ही पडेगा, यह निश्चित है, इसलिए तुम इन्हें स्वयं ही क्यों न छोड दो? यदि न छोड सको तो कम से कम अपने नव कर्त्तव्यों का पालन तो अवश्य करो ताकि शान्तिपूर्वक जी सको, शान्तिपूर्वक मर सको और बाद के भव में भी क्रमशः आत्मा का श्रेयः साध सको।

इसके लिए प्रथमतः श्री वीतराग परमात्मा द्वारा निषेधित कार्य नहीं करने का संकल्प करें। दूसरा, सभी जीवों के प्रति करुणाभाव रखें। तीसरा, यथाशक्ति दान करें। अनंत ज्ञानियों द्वारा संसार सागर से पार होने के लिए दर्शित मार्ग की प्ररूपणा करने वाले शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना, यह चौथा कर्त्तव्य है। पांचवां, पूर्व में कृत और वर्तमान में हो रहे पापों को नष्ट करने के लिए पश्चाताप करें। छठा, विषय-कषायरूप भव की भीति, अर्थात् संसार का डर। आत्मा के शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकरण हेतु मुक्ति मार्ग अनुराग सातवां कर्त्तव्य है। सत्पुरुषों का संसर्ग करना आठवां कर्त्तव्य है। और नवां, विषयों से विरक्त बनने का प्रयास करें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

मन को विषय-वासना का घर न बनाएं



विषय सुख की वासना अच्छे-अच्छे आदमियों को भी हैवान एवं पाप से डरने वालों को भी पापासक्त बना सकती है। साधु पुरुषों के लिए तो काम-भावना के उद्देश्य से इन्द्रियों का यत्किंचित विचार भी धिक्कार और दोष रूप होता है। उन्हें तो मन, वचन, काया से सर्व प्रकार के सम्भोगों का त्याग ही करना होता है। गृहस्थों में जो सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने में अशक्त होते हैं, ऐसे गृहस्थों को पर-स्त्री मात्र का त्याग करना चाहिए तथा अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष वाले बनना चाहिए।

परस्त्री से विमुखता और स्वस्त्री से संतोष यह दो बातें गृहस्थ के रूप में उत्तम ब्रह्मचारी बनाने वाली मानी गई है। सच तो यह है कि गृहस्थ को भी विषय सेवन के प्रति ग्लानि होनी चाहिए। गृहस्थ को अपनी दृष्टि ऐसी निर्मल बनानी चाहिए कि कोई भी स्त्री नजर में आए तो उसके मन में विकार उत्पन्न न हो। अपनी पत्नी में भी काम का रंग चढाने की वृत्ति नहीं होनी चाहिए। वेदोदय रूप रोग के कारण यदि सहवास के बिना असमर्थ हो जाए तो बने जिस प्रकार रोगी दवा लेता है, उस प्रकार गृहस्थ भोग को भोगे, परन्तु मन को विषय-वासना का घर न बनने दे।

विषयाभिलाषा की बढती तीव्रता

ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य की नौ बाडों का वर्णन किया है। माता और बहन के साथ भी युवा पुत्र या भाई को एकान्त में नहीं रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक का इस प्रकार पतन हो, परन्तु ये भी पतन की ओर ले जाने वाले संयोग उत्पन्न कर सकते हैं। आज तो इस विषय में अनेक अमर्यादाएं बढ रही है, इसका कारण है विषयाभिलाषा की तीव्रता। जवान लडके और लडकियां आज जिस छूट-छाट को भोगने के लिए ललचा रहे हैं, उनके कितने गंभीर परिणाम आते हैं? इसका विचार सबको करना चाहिए। सिनेमा आदि विषय-विकारों को बढाने वाले संसाधन आज बढते ही जा रहे हैं। आज की शिक्षा भी इस आग में घी का काम कर रही है। विषय-वासना के कारणों ने आज विवाह संबंधी प्रश्नों को भी विकट बना दिया है। पहले तो मां-बाप समान कुल, शील आदि देखकर विवाह करते थे और विवाहित बच्चे भी संतोष से जीवन व्यतीत करते थे। आज विषय-वासनाएं बढ गई है और इसलिए पति-पत्नी में मनमेल भी नहीं रहता। प्रेम-विवाह के नाम पर भी अनेक अनाचार चल रहे हैं और इन सभी स्थितियों में तलाक की आँधी चल रही है। पतन की ये परिस्थितियां घर-परिवार-समाज सबको तोड रही है। क्या आर्य देश में ऐसा होना चाहिए? ब्रह्मचर्य तो ऐसा गुण है कि उसके बिना अन्य कोई गुण शोभित ही नहीं हो सकता और न ही स्थिरता को प्राप्त कर सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

चारों ओर चोर ही चोर



धन का लोभी व्यक्ति, लूट-खसोट करता है। एक दूसरे को लूटता है। परिग्रह में आसक्त होता है। फिर वह परिग्रही चित्त वाला व्यक्ति, आसक्ति वाला व्यक्ति छः काय-जीवों की विराधना करता है। हिंसादि में दौडता है। वह, यह सब कुछ किसलिए करता है? वह व्यक्ति ये सब कुछ पाप करता हुआ सोचता है कि इससे मेरा मनोबल बढ जाएगा, आत्मबल बढ जाएगा और मेरे पास का संग्रह-परिग्रह अधिक हो जाएगा तो फिर मेरा मित्र-बल भी बढ जाएगा, मेरा देव-बल बढ जाएगा, मेरा राजबल बढ जाएगा और गिनाते-गिनाते वह पाप कार्य में आसक्त व्यक्ति कहता है, सोचता है कि मेरा चोर-बल भी बढ जाएगा।

जो जितना ज्यादा परिग्रही, वह उतना ही बडा चोर। अब वह व्यक्ति धन्धे भी तो कैसे करता है? चोरी के धन्धे, तस्करी के धन्धे करता है। कालाबाजारी, ब्लेकमेल के धन्धे, (रिश्वतखोरी, भ्रष्ट कर्म) तो वह करता ही है और यह धन्धा सरकार से छुप-छुप कर किया जाता है, तो यह भी तो अपने आप में एक प्रकार की चोरी ही है। इस दुनिया में चारों ओर चोर ही चोर हैं। वह परिग्रही व्यक्ति अपने परिग्रह के बूते पर समाज में अपना मान-सम्मान बढा लेता है। समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ जाती है। फिर उसे लोग अपने यहां आमंत्रित करते हैं और उसके यहां भी आने-जाने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ जाती है। वह मिथ्यात्व में जीता है और नरक का मेहमान बनता है। ऐसे व्यक्ति प्रशंसा-पात्र नहीं होते, यह सम्यक्त्व में दोष है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 28 जनवरी 2015

सावधान! मर्यादाएं टूट रही हैं!



जब मर्यादा टूटती है तो विनाश आता है। नदी-नाले भी जब तक मर्यादा में बहते हैं, तब तक तो अच्छे लगते हैं। किनारों के बीच बहते रहते हैं, तब तक तो खेतों को पानी देते हैं, उन्हें हरियाली से भर देते हैं। खेतों-खलिहानों को लहलहाता बनाकर मनुष्यों को भी खुशहाली से, प्रसन्नता से भर देते हैं, लेकिन वे ही नदी-नाले जब मर्यादाएं छोड देते हैं, मर्यादा से बाहर बहने लगते हैं तो क्या होता है? बाढ आ जाती है, विनाश-लीला सामने खडी हो जाती है। हजारों घर पानी में डूब जाते हैं। चारों ओर तबाही का आलम ही नजर आता है।

माता-पिता की पुत्र के प्रति क्या मर्यादा होती है? पुत्र की माता-पिता के प्रति क्या मर्यादा होती है? एक गुरु का शिष्य के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है? शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है? इन सारी बातों का पालन आज कौन कर रहा है? और कहां कर रहा है? खान-पान, रहन-सहन आदि हर चीज में मर्यादा की जरूरत होती है। लेकिन, आज सभी ओर मर्यादाएं टूट रही हैं। अमर्यादित जीवनशैली ने समाज में कई तरह के संकट पैदा कर दिए हैं। वीतरागता का नाम लेकर आज हम अनेकों मर्यादाओं को लांघते जा रहे हैं। अपनी संस्कृति को छोडते चले जा रहे हैं। जीवन से एक मर्यादा भी अगर जाती है, अथवा भंग होती है तो उसके साथ-साथ सारी मर्यादाएं धराशायी हो जाती हैं और जब जीवन मर्यादा विहीन हो जाता है, तो महाविनाश होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

आसक्ति से निम्न गति



आप जानते हैं स्वर्ग में रहने वाले देवता अपार ऋद्धि सम्पदा के स्वामी होते हैं। उन देवताओं के मन में भी उस देवलोक के किसी सुख पर आसक्ति रह जाती है, तो उनकी आत्मा कहां से कहां गिर जाती है। जरा-सी आसक्ति अगर उनकी कहीं रह जाती है तो वे देवता मर कर क्या बन जाते हैं? पृथ्वी, पानी, वनस्पति में उनका जीव उत्पन्न हो जाता है। क्यों? ऐसा कैसे हो जाता है कि पंचेन्द्रिय का जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो जाता है? जो देव अथाह वैभव के स्वामी थे, जिनके यहां सुख ही सुख था, वे इतने स्वर्गीय सुख के स्वामी कहां से कहां गिर पडे?

सोचिए आप एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय का शरीर पाने के लिए भी जीव को कितनी पुण्यवानी की आवश्यकता होती है? अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है, तब जाकर कोई भी जीव एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय में गति पाता है। फिर अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है तो, वह आत्मा बेइन्द्रिय से तेइन्द्रिय में प्रवेश करती है। तेइन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय में पहुंचने के लिए भी अनन्त पुण्यवानी की आवश्यकता होती है।

इसी तरह से अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है तो जीव पंचेन्द्रिय में जाता है। और वहां भी अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है, तो वह देवलोक में जाता है। इतने अनन्त पुण्यों के संचय के बाद आत्मा देवलोक में जाती है और वहां अगर थोडी-सी आसक्ति भी रह जाए तो ऐसी गिरती है कि सारी पुण्यवानी खत्म हो जाती है। देवलोक से जीव सीधा एकेन्द्रिय में प्रवेश कर जाता है। यह सब किस कारण होता है? आसक्ति-भाव के कारण। इसलिए किसी में आसक्ति न रखो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 26 जनवरी 2015

राग के कारण जन्म-मरण



अभी हमारी मैत्री जड पदार्थों के साथ है। जड पदार्थ ही हमें संसार में बांधे हुए हैं। जड पदार्थों के प्रति हमारी आसक्ति होती है और आसक्ति के कारण जन्म-मरण होता है। हम बार-बार संसार में जन्म लेते हैं। जन्म-मरण का मूल आधार क्या है? पदार्थों के प्रति हमारा राग-भाव। यह राग-भाव ही हमारे भीतर आसक्ति पैदा करता है। बन्धन का कारण क्या है? बन्धन का कारण भी यह राग-भाव ही है। हमारे भीतर जिस किसी के प्रति आसक्ति रह जाती है, उस रूप में हमारा जन्म पुनः हो जाता है। और यह जन्म-मरण का चक्र अनवरत चलता रहता है। राग-भाव से मुक्त हुए बिना जन्म-मरण से छुटकारा नहीं हो सकता। यदि आप इस जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा-सर्वदा के लिए मुक्त होना चाहते हैं, तो कोई भी क्रिया करने से पहले इतना जरूर विचार करिए कि मैं क्या कर रहा हूं? किसके लिए और क्यों कर रहा हूं? क्या जीवन का यही उद्देश्य है? यदि आप मुक्त होना चाहते हैं तो इसी चिंतन से आगे की राह निकलेगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 25 जनवरी 2015

हम स्वयं अपने शत्रु



यह मनुष्य जीवन ही है, जिसमें सोचने-समझने और उसके अनुरूप करने की क्षमता है। लेकिन, उस क्षमता का सही उपयोग हम नहीं कर रहे हैं। आत्म-कल्याण में हम अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। संसार वृद्धि में, संसार के कार्यों में हम अपनी बुद्धि का उपयोग कर रहे हैं। वास्तव में स्वयं के साथ स्वयं की शत्रुता बढा रहे हैं। हम स्वयं अपनी आत्मा के शत्रु बने हुए हैं। गलत मार्ग पर हमारी आत्मा चलती है तो वह स्वयं की शत्रु बनती है और सही मार्ग पर चलती है तो स्वयं की मित्र बनती है। लेकिन, आज हमारी स्वयं की मनःस्थिति ऐसी बनी हुई है कि हम सभी अधिकांश रूप से हमारी आत्मा के शत्रु बने हुए हैं। जब तक हमारा ध्यान आत्मा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाले इन नाशवान् पदार्थों के प्रति लगा रहेगा, चाहे वह नाशवान पदार्थ शरीर हो या शरीर की कोई अन्य सम्पदा हो। जब तक हम बाह्य तत्त्व से जुडे हुए हैं, अपने से भिन्न तत्त्व से जुडे हुए हैं, तब तक हम अशान्त ही रहगें। शान्ति होती है अद्वैत भाव में रहने पर। अद्वैत में हम कब जा सकते हैं, जब केवल आत्मा में जाएं। पर के प्रति हमारा ध्यान ही न रहे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 24 जनवरी 2015

आत्मा को भुला दिया है



आपने अपने जीवन में जो संस्कार प्राप्त किए हैं, कई जन्म-जन्मांतरों के संस्कार, बचपन के संस्कार, वात्सल्य के संस्कार ही आगे चलकर विकसित, पुष्पित, पल्लवित होते हैं और उन संस्कारों के अनुसार जीवन क्रम चलता रहता है। आपको बचपन से ही ये संस्कार मिले हैं कि जीवन में अधिक से अधिक पैसा कमाना। अधिक से अधिक पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करना और अधिक से अधिक ऐशो-आराम की सुविधाएँ जुटाना। ऐसी स्थिति में आप अधिक से अधिक अपने शरीर से, वस्तुओं से जुडे रहते हैं। अधिक से अधिक अपने परिवार से जुडे रहते हैं। अपने शरीर पर ही आपका ध्यान केन्द्रित हो जाता है। अपने परिवार के सदस्यों पर आपका ध्यान केन्द्रित हो जाता है। इससे अधिक कुछ हुआ, तो आप समाज से जुड जाते हैं। किन्तु, आपके चैतन्य, आपकी आत्मा के प्रति आपका ध्यान नहीं जाता है।

आत्मा को आपने पूरी तरह भुला दिया है। इसे क्या आप बुद्धिमानी कहेंगे कि आप नाशवान पर-पदार्थों में ही लिप्त हैं? ऐसा कर के आप स्वयं के शत्रु बन रहे हैं कि नहीं? स्वयं का बोध आपने किया नहीं है और बिना ज्ञान के आचरण करते चले जा रहे हैं, तो आपका यह आचरण कैसा होगा? पहले ज्ञान प्राप्त करो, उसके बाद आचरण करो। अगर तुम्हें ज्ञान ही नहीं है कि अमुक पदार्थ में जीव है, पानी में जीव है, तो उन जीवों के प्रति दया कैसे जागेगी? करुणा कैसे जागेगी? इसलिए जीवन में क्रिया करने से पहले विवेक का होना, ज्ञान का होना जरूरी है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

आधुनिक शिक्षा में संस्कार नहीं, जहर है



आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा दें, समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान है, जिसने अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और बडा आदमी बन जाएगा। लेकिन, वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें आत्मा कहां है? वहां तो जहर ही जहर है। संसार में बिगडने, भटकने के साधन बढते जा रहे हैं और धार्मिक संस्कारों के साधन घटते जा रहे हैं। ये सब आपने विचार नहीं किया। आप उसे कितना ही सम्हाल कर रखिए, लेकिन जब बचपन से ही बच्चा ऐसे माहौल में पलता है, पढता है, जो सीखता है, उसमें वे संस्कार आएंगे ही।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

जीवन को सही रूप में समझें



भौतिक सुख एक उत्तेजना है, और दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शान्ति की अवस्था है। भौतिक सुख जो चाहता है, वह निरंतर दुःख में पडता है। क्योंकि, एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के साथ रात्रियां। किन्तु, जो सुख और दुःख दोनों को छोड कर सर्वविरति के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनन्द को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।

आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनन्द की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं, वे जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक सम्पदा है। उसे न खोजकर, जो कुछ और खोजते हैं, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंततः वे पाएंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं।

जीवन एक दिव्य गीत है

जीवन को धन्य बनाने की बात तभी बन सकती है, जबकि जीवन को सही रूप से समझ लिया जाए। अभी हममें से बहुत कम व्यक्ति ऐसे होंगे, जिन्होंने जीवन को सर्वांगीण रूप से सर्वतोभावेन समझ लिया हो। आप आज आत्मा की मूल सत्ता को भुलाए बैठे हैं। आप शान्ति को, आनन्द को पाना चाहते हैं, लेकिन उसे बाहर ही बाहर खोज रहे हैं। पर पदार्थों में, पर-घरों में शान्ति खोज रहे हैं। यह जीवन नहीं है। जीवन एक पवित्र यज्ञ है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए अपनी आहुति देने को तैयार होते हैं। जीवन एक अमूल्य अवसर है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो साहस, संकल्प और श्रम करते हैं। जीवन एक वरदान देती चुनौती है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो उसे स्वीकारते हैं और उसका सामना करते हैं। जीवन एक महान संघर्ष है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो स्वयं की शक्ति को इकट्ठा कर विजय के लिए जूझते हैं। जीवन एक भव्य जागरण है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो स्वयं की निंद्रा और मूर्च्छा से लडते हैं। जीवन एक दिव्य गीत है। लेकिन, उन्हीं के लिए जिन्होंने स्वयं को परमात्मा का वाद्य बना लिया है। अन्यथा, जीवन एक लम्बी व धीमी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जीवन वही हो जाता है, जो हम जीवन के साथ करते हैं। अतिदुर्लभ यह मानव जीवन, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं, वह सिर्फ खाने-पीने और सोजाने के लिए नहीं है, अपितु प्रमाद को छोडकर, अपने कर्मों का क्षय कर आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए, अक्षय आनंद और अक्षय सुख प्राप्त करने के लिए है। संसार में फिर जन्म न लेना पडे, भटकना न पडे, इसके लिए पुरुषार्थ करने के लिए यह जीवन है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 21 जनवरी 2015

तृष्णा जीर्ण नहीं होती


तृष्णा जीर्ण नहीं होती

देवत्व के भोगों की तुलना में मानवीय भोग अति तुच्छ हैं। देवताओं के भोगों से परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य इन तुच्छ भोगों में लीन हो जाते हैं। ऐसे भोगों को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती। इससे यह सूचित होता है कि भोग-सुख भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही नहीं है। भोगों की तृष्णा हटाए बिना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को त्यागना होगा। तृष्णा युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति प्राप्त करे, आनंद प्राप्त करे, यह संभव नहीं है। इंसान भोग से कभी तृप्त नहीं हो सकता, उसकी भोगवृत्ति बढती ही जाती है और एक दिन भोग ही उसका भोग कर लेते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, इंसान का जीवन और शरीर जीर्णशीर्ण हो जाता है। जीवन की वास्तविकताओं को समझकर सम्यक्त्व धारण करने वाला और संयम धारण करने वाला ही भोग और तृष्णा पर अंकुश लगा सकता है तथा वास्तविक अक्षय सुख का आनंद प्राप्त कर सकता है। वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

मृत्यु का खयाल हमेशा रहे



ज्ञान-बुद्धि एवं सामग्री का जैसा सदुपयोग इस मनुष्य जीवन में होना चाहिए, वैसा यदि न हो तो, वैसा करने के लिए अन्य कोई भी स्थान नहीं है। जब तक आत्मा और आत्मा के धर्मों का स्वरूप समझ में न आए, तब तक कोई भी अपना कर्तव्य यथास्थित स्वरूप में नहीं कर पाएगा। जिस दिन हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझ जाएगा, उस दिन विग्रहों का स्वयं शमन हो जाएगा। हम अपना कर्तव्य नहीं समझ पाते उसका मुख्य कारण है कि हम आत्म-तत्वको ही भूल गए हैं।

मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, यह विचार जो प्रत्येक व्यक्ति के मन में सदैव जीवित-जागृत रहना चाहिए, वह बिसर गया है। यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है। "मैं मरने वाला हूं", यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की क्रियाएं, पेट भरना, बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? पशु-पक्षी और तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और आपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हुए बिना नहीं रहता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 19 जनवरी 2015

आत्म-स्वरूप का चिंतन करें



आत्मा का धर्म क्या है?’, यह यथार्थरूप में जिस दिन समझ में आ जाएगा, उस दिन जो आनंद, सुख और शान्ति का अनुभव होगा, वह अलौकिक होगा। यदि सभी को अपनी यथार्थ स्थिति का ध्यान हो जाए, तो वर्तमान अशान्ति सहज ही में नष्ट हो जाए। आत्मा का धर्म क्या हो सकता है, उसे विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए? इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करके, उस पर अमल करने का भाव जब तक नहीं जागेगा, तब तक आत्मा का साक्षात्कार नहीं होगा। ऐसा भाव (अर्थपना) प्राप्त होना, यह एकाएक संभव नहीं। परन्तु, सद्गुरु के सान्निध्य में आकर, ग्राह्य पदार्थों से चित्त को हटाकर, 24 घंटों में एकआध घडी भी शान्तचित्त से आत्मस्वरूप का प्रतिदिन चिंतन किया जाए, तो धीरे-धीरे उसकी अनुभूति या झलक प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगी।

प्रत्येक व्यक्ति को इतना तो कबूल करना ही पडेगा कि यह शरीर वह आत्मा नहीं है। आत्मा शरीर से भिन्न कोई अदृश्य वस्तु है और इसलिए आयुष्य के अंत में वह शरीर को यहीं छोडकर चली जाती है। आत्मा, इहलोक व परलोक आदि समस्त पदार्थ बुद्धि और तर्क संगत हैं। एक ही समय में उत्पन्न आत्माओं में परस्पर भिन्नता दृष्टिगत क्यों होती है? एक का जन्म उत्तम कुल में होता है तो दूसरे का अधम कुल में। एक ही मां-बाप से जन्में पुत्रों में एक अधिक बुद्धिशाली होता है, दूसरा मंदबुद्धि होता है। एक में शक्तियां विकसित होती है तो दूसरे में उन शक्तियों के विकास हेतु वर्षों लग जाते हैं। इन सबका कारण क्या? अवश्य इनमें कोई न कोई पूर्व जन्म का योग, संस्कार एवं सामग्री कारणभूत है। इसी कारण शरीर और आत्मा में भिन्नता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर के धर्म, आत्मा के धर्म नहीं हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 18 जनवरी 2015

कृतघ्नता नहीं, कृतज्ञता अपनाएं



अच्छा हो तो किसी का गुण नहीं मानना और बुरा हो तो किसी को दोष देना, यह अज्ञानता की निशानी है। सज्जन सबके गुणों को याद करते हैं और बुरा हो तो स्वयं की निन्दा करते हैं, जबकि दुर्जन समस्त आदमियों में कोई गुण नहीं देखता, स्वयं की योग्यता ही सिद्ध करता है और काम खराब होने पर दूसरों को दोष दिए बगैर नहीं रहता। सामने वाले व्यक्ति ने आपके लिए अच्छा चिंतन किया, आपका भला हो, इस आशय से उसने प्रयत्न किया और अपने पुण्योदय के योग से उनका वह प्रयत्न सफल भी रहा; किन्तु ऐसा जानते हुए भी हम उसका उपकार न मानें तो स्वयं कृतघ्न ही कहलाएंगे न? कृतज्ञता, यह भी एक अनुपम गुण है। कृतज्ञता गुण सामने वाले की और स्वयं की परहित की भावना को विकसित करता है। कृतघ्न आत्माएं परहित-चिन्तारूप मैत्री की मालिक कभी नहीं बन सकती। स्वयं के ऊपर उपकार करने वाले का उपकार वे गिनते ही नहीं हैं। ऐसे लोग दूसरे पर उपकार करने की वृत्ति वाले बनें, यह असंभव है। सच्ची बात तो यह है कि कल्याणार्थी आत्माएं संसार के सभी प्राणियों का भला चाहती हैं, किसी का भी बुरा नहीं चाहतीं। आत्मा को ऐसा बनाना चाहिए कि वह सबके कल्याण में अपनी प्रवृत्ति दिखाए, लेकिन किसी के अनिष्ट कार्य में भाग न ले, बुरा न चाहे। अनजान में किसी का बुरा हो जाए तो उसका हमें दुःख होना चाहिए। बुरा करने वाले का भी भला हो, यह भावना सदा रहनी चाहिए। मेरे प्रति दुश्मनी रखने वालों का भी कल्याण हो, ऐसा व्यवहार होना चाहिए। जब दुश्मन के भी कल्याण की भावना हो तो अपना अच्छा करने वाले के प्रति उपकार मानने की भावना होनी चाहिए कि नहीं?

कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की घातक

जिनके हृदय में कृतज्ञता गुण होता है, वे उपकार मानने में भूल नहीं करते हैं। कृतज्ञता गुण के सामान्य रूप से अनेक फायदे होते हैं। इससे सामने वाले में उपकार करने की भावना और दृढ होती है, उसे प्रोत्साहन मिलता है और वह अन्य आत्माओं का भी भला करने के लिए तत्पर बनता है। इस पद्धति से कृतज्ञ आत्माएं स्व-पर-उभय का उपकार साध सकती हैं। दूसरी तरफ कृतघ्न आत्माएं स्व-पर की उपकार वृत्ति की घातक बनती हैं। उपकारी के प्रति यदि हमने कृतघ्नतापूर्ण व्यवहार किया, उपकार का बदला अपकार से दिया और वह सामान्य कोटि की आत्मा हुई तो क्या सोचेगी- इस दुनिया में किसी का भला करने का जमाना नहीं है। वह भविष्य में किसी की मदद करने में कतराएगा। उपकार करने वाले के हृदय में ऐसी दुर्भावना पैदा करने में हमारी कृतघ्नता निमित्तरूप बने तो यह हमारे लिए ही बहुत पापकारी है। कृतघ्नतावृत्ति से दूसरों का तो नुकसान है ही, इससे हमारे लिए भी नुकसान की संभावनाएं बढ जाती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 17 जनवरी 2015

झूठी निन्दा से धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता



कल्याणकामी आत्माओं को दोषितों के संसर्ग से बचाने और सच्चे गुणवानों के संसर्ग में स्थापित करने की कामना धर्मदेशक में होनी चाहिए। इसी कारण से दोषितों को लक्ष्य करके होने वाले दोषों का वर्णन करना, यह जैसे निन्दा नहीं है, उसी प्रकार सच्चे गुणवानों को अनुलक्ष्य करके किए जाने वाले गुणों का वर्णन, यह मिथ्या प्रशंसा भी नहीं है। धर्मार्थी श्रोताओं को तो खास करके इस बात को भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि धर्म के विरोधियों की तरफ से इस प्रकार से भी भद्रिक आत्माओं को बहकाने का प्रयत्न होता है। यह असंभवित नहीं है।

हम यशोलिप्सा के योग से सन्मार्ग से विमुख बनने वालों का वर्णन करेंगे तो यह निन्दा है। हम तो ऐसी भी आत्माओं के कल्याण की ही कामना करते हैं, यह निर्विवाद बात है। किन्तु, ऐसी आत्माएं स्वयं का अकल्याण साध रही हैं; इस प्रकार समझाकर, उस प्रकार से भी अकल्याण को साधने वाले नहीं बनें, उसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए। विरोधी इसे निन्दा कहें, यह तो स्वाभाविक है। समझ रहित व्यक्तियों को समझाने का हम शक्य प्रयास करें, फिर भी वे न समझें तो उनकी भवितव्यता। सचमुच अज्ञान यह महाकष्ट है। अज्ञान को सज्ञान बनाने का प्रयत्न करना, परन्तु अज्ञानी की बातों से व्यथित नहीं होना है। विरोधियों से प्रेरित होकर अथवा ऐसे-वैसे भी अज्ञानी आत्मा चाहे जितनी टीका या निन्दा करें, इससे धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता है।

स्वयं के कर्मों को देखें

मिथ्यात्व के उदय से आत्मा दोष को दोष के रूप में नहीं देख सकती। ऐसे भी व्यक्ति होते हैं कि स्वयं का एक सामान्य काम भी बिगड जाए तो उसमें सैकडों प्रकार की गालियां दे दें। अमुक ने बिगाड किया, अमुक बीच में आया, अमुक ने मदद न की। इस प्रकार अनेकों को दोष देता है। स्वयं का दोष नहीं देखता है। ऐसे व्यक्ति को धर्म का निंदक बनते हुए भी देर नहीं लगती है। कहेंगे कि धर्म बहुत किया, पर अन्त में दशा तो यही हुई न?’ किन्तु, यह विचार नहीं करता है कि यह फल धर्म का है या पूर्व कृत पापों का उदय?’ ऐसे व्यक्तियों को धर्म रुचिकर नहीं लगता। धर्म करणी विधि-विधान के अनुसार करने की मनोवृत्ति ऐसों की नहीं होती, यह भाग्य से ही होता है। धर्म-कर्म करते समय ऐसे व्यक्तियों के हृदय में पापमय वासना हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी यह कहेंगे कि धर्म बहुत किया, किन्तु फलदायी नहीं हुआ। धर्म करणी भी धर्म का अपमान हो इस प्रकार से करते हैं और फल अच्छा चाहते हैं, तो वह मिलेगा कहां से? इस प्रकार के विचार तो उन्हीं को सूझते हैं, जिनमें स्वयं की कमी देखने की, सुनने की योग्यता नहीं होती।

अपनी कमी सुनने-सुधारने वाले का ही कल्याण संभव

स्वयं की कमी को नहीं सुनने वाला व्यक्ति हितशिक्षा देने वाले को उपकारी मानने के बजाय उस पर क्रोध करता है, उसका भला कभी नहीं होता, यह निश्चित बात है। जिसमें स्वयं की कमी सुनने की क्षमता ही न हो, उसका कल्याण किस प्रकार हो सकता है? आप यहां व्याख्यान सुनने के लिए आते हैं या वखाण? यहां जीवाजीवादि के स्वरूप की व्याख्या चलती हो तो आपको रुचिकर लगता है या आपका वखाण-प्रशंसा आपको रुचिकर लगती है? यहां आने का हेतु क्या है? कमी सुनने का या प्रशंसा सुनने का? आप आप में रही हुई कमियों को दूर करने के लिए यहां आते हैं और हम आपका वखाण करें, यह कैसे हो सकता है? हमें आपकी कमी बतानी चाहिए या नहीं? अमुक-अमुक कमियां अमुक-अमुक रीति से दूर की जा सकती है, ऐसा हमें कहना चाहिए या नहीं? कल्याण चाहते हो तो कमी सुनने और उसे दूर करने के लिए सदा तैयार रहो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

उन्मार्ग के रसिकों से सावधान


कुएं के मुख पर वस्त्र नहीं बांधा जा सकता और लोगों के मुँह पर ताला नहीं लगाया जा सकता है। यह कहावत लोक के स्वभाव का परिचय देने वाली है। लोकनिन्दा से सर्वथा बचना, यह कठिन है, उसमें भी उन्मार्ग के उन्मूलन पूर्वक सन्मार्ग की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील बने हुए महापुरुषों की कठिनाइयों का तो कोई पार ही नहीं है। उन्मार्ग के रसिक वैसे महापुरुषों के लिए पूर्ण रूप से कल्पित बातें फैलाकर उन्हें कलंकित करने के जी-तोड प्रयत्न करने से चूकते नहीं हैं। इस प्रकार वे तीन सिद्धियां प्राप्त कर सकते हैं। एक तो यह कि उन्मार्ग के उच्छेदक और सन्मार्ग के संस्थापक महापुरुषों को अधम कोटि का बताकर, अज्ञानी लोगों को उनके पवित्र संसर्ग से दूर भगा सकते हैं। दूसरी, उन्मार्ग के उन्मूलन का और सन्मार्ग के संस्थापन का पवित्र कार्य करने वालों में भी जो लोकनिन्दा के सामने टिकने की हिम्मत नहीं रखते, उनको फरजीयात मौन स्वीकार करना पडता है और तीसरी सिद्धि यह कि लोकवायका के अर्थी, उन्मार्गनाश और सद्धर्म प्रचार का कार्य छोडकर वे रुकते नहीं हैं, अपितु स्वयं भी उन्मार्गगामी बन जाते हैं। ऐसों के पाप से अनेक आत्माएं सद्धर्म से वंचित रह जाती हैं। ऐसे व्यक्ति शासन के भयंकर दुश्मन होते हैं और वे समाज को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। वे लोग स्वयं का पाप छिपाने के लिए वफादार शासन सेवकों की भी निन्दा करते हैं। सत्त्वशील महापुरुष तो ऐसी आफतों की उपेक्षा करके स्वयं का पवित्र कार्य करते ही जाते हैं, लेकिन कल्याण के अर्थियों को भी इसे समझकर सावचेती रखनी चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

वास्तविक शत्रु के साथ लड़ें



विवेकी आत्मा किसी भी जीव के साथ वैर नहीं बांधता। विश्व के प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव होना चाहिए। किन्तु, किसी के भी साथ में वैर नहीं होना चाहिए। इस संसार में वैर तो उन वस्तुओं के साथ धारण करना चाहिए, जो वस्तु सचमुच में दुश्मनरूप ही है। दुनिया के अज्ञानी जीव इसको समझते नहीं हैं। दुनिया के अज्ञानी जीव वास्तविक दुश्मन के साथ लडते नहीं हैं और दुश्मन के उत्पन्न किए हुए दुश्मन के साथ लडने के लिए तैयार होते हैं, यह सिंहवृत्ति नहीं है, अपितु श्वानवृत्ति है। सिंह बाण की तरफ नहीं दौडकर बाण मारने वाले के ऊपर ही धावा बोलता है। जबकि कुत्ता लकडी मारने वाले के ऊपर नहीं दौडता है, अपितु लकडी की तरफ दौडता है। इसी रीति से अज्ञानी जीव भी दुःख के वास्तविक कारण का नाश करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते हैं, अपितु दुःख के वास्तविक कारण-योग से प्राप्त हुई सामग्री का सामना करने के लिए तत्पर बनते हैं। यह सिंहवृत्ति नहीं, अपितु श्वानवृत्ति है। विचार करो कि इस संसार में वास्तविक दुश्मनरूप कौनसी वस्तु है?’ कर्म ही न? कर्म ही बडे से बडा दुश्मन है, सम्पूर्ण विपत्तियां इसी के योग से प्राप्त होती हैं। आत्मा अनादिकाल से इस कर्मरूप दुश्मन के कारागार का कैदी बना हुआ है। जब तक इस कारागार को भेदकर वह बाहर नहीं निकलेगा, अर्थात् उससे सर्वथा मुक्त नहीं बनेगा, वहां तक सभी दुःखों का सम्पूर्ण अंत असम्भव है। इसलिए कर्मों की निर्जरा का प्रयत्न ही सच्चा सुख व शान्ति दे सकता है और उसी के लिए पुरुषार्थ होना चाहिए।

पर-निन्दा नहीं, स्व-निन्दा करो

निन्दा-रसिक बनो, तो वह रसिकता स्वयं की आत्मा के प्रति ही धारण करो। स्वयं में जो-जो दोष हों, उन-उन दोषों की अहर्निश निन्दा करो और उन दोषों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील बनो। परन्तु, यह तो करना है किसको? इस जगत में आत्म-निन्दा में मस्त रहने वाली आत्माओं की संख्या बहुत ही कम है, जबकि परनिन्दा के रसिक तो इस जगत में भरे हुए हैं। दूसरों के दोषों को देखकर उनके प्रति विशेष दयालु बनना चाहिए। उनको उन-उन दोषों से मुक्त करने के शक्य प्रयत्न करने चाहिए। कब यह दोष से मुक्त बने और कब यह अपने अकल्याण से बचे, यह भावना होनी चाहिए। इस वृत्ति, इस भावना के साथ परनिन्दा रसिकता का तनिक भी मेल है क्या? नहीं ही। लेकिन, स्वयं में अविद्यमान गुणों को स्वयं के मुख से गाने की जितनी तत्परता है, उतनी ही दूसरों के अविद्यमान भी दोषों को गाने की तत्परता है और इसीलिए ही संख्याबद्ध आत्माएं हित के बदले अहित साध रही हैं। अपना हित साधना है तो पर-निन्दा नहीं, स्व-निन्दा करो।