शनिवार, 17 जनवरी 2015

झूठी निन्दा से धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता



कल्याणकामी आत्माओं को दोषितों के संसर्ग से बचाने और सच्चे गुणवानों के संसर्ग में स्थापित करने की कामना धर्मदेशक में होनी चाहिए। इसी कारण से दोषितों को लक्ष्य करके होने वाले दोषों का वर्णन करना, यह जैसे निन्दा नहीं है, उसी प्रकार सच्चे गुणवानों को अनुलक्ष्य करके किए जाने वाले गुणों का वर्णन, यह मिथ्या प्रशंसा भी नहीं है। धर्मार्थी श्रोताओं को तो खास करके इस बात को भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि धर्म के विरोधियों की तरफ से इस प्रकार से भी भद्रिक आत्माओं को बहकाने का प्रयत्न होता है। यह असंभवित नहीं है।

हम यशोलिप्सा के योग से सन्मार्ग से विमुख बनने वालों का वर्णन करेंगे तो यह निन्दा है। हम तो ऐसी भी आत्माओं के कल्याण की ही कामना करते हैं, यह निर्विवाद बात है। किन्तु, ऐसी आत्माएं स्वयं का अकल्याण साध रही हैं; इस प्रकार समझाकर, उस प्रकार से भी अकल्याण को साधने वाले नहीं बनें, उसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए। विरोधी इसे निन्दा कहें, यह तो स्वाभाविक है। समझ रहित व्यक्तियों को समझाने का हम शक्य प्रयास करें, फिर भी वे न समझें तो उनकी भवितव्यता। सचमुच अज्ञान यह महाकष्ट है। अज्ञान को सज्ञान बनाने का प्रयत्न करना, परन्तु अज्ञानी की बातों से व्यथित नहीं होना है। विरोधियों से प्रेरित होकर अथवा ऐसे-वैसे भी अज्ञानी आत्मा चाहे जितनी टीका या निन्दा करें, इससे धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता है।

स्वयं के कर्मों को देखें

मिथ्यात्व के उदय से आत्मा दोष को दोष के रूप में नहीं देख सकती। ऐसे भी व्यक्ति होते हैं कि स्वयं का एक सामान्य काम भी बिगड जाए तो उसमें सैकडों प्रकार की गालियां दे दें। अमुक ने बिगाड किया, अमुक बीच में आया, अमुक ने मदद न की। इस प्रकार अनेकों को दोष देता है। स्वयं का दोष नहीं देखता है। ऐसे व्यक्ति को धर्म का निंदक बनते हुए भी देर नहीं लगती है। कहेंगे कि धर्म बहुत किया, पर अन्त में दशा तो यही हुई न?’ किन्तु, यह विचार नहीं करता है कि यह फल धर्म का है या पूर्व कृत पापों का उदय?’ ऐसे व्यक्तियों को धर्म रुचिकर नहीं लगता। धर्म करणी विधि-विधान के अनुसार करने की मनोवृत्ति ऐसों की नहीं होती, यह भाग्य से ही होता है। धर्म-कर्म करते समय ऐसे व्यक्तियों के हृदय में पापमय वासना हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी यह कहेंगे कि धर्म बहुत किया, किन्तु फलदायी नहीं हुआ। धर्म करणी भी धर्म का अपमान हो इस प्रकार से करते हैं और फल अच्छा चाहते हैं, तो वह मिलेगा कहां से? इस प्रकार के विचार तो उन्हीं को सूझते हैं, जिनमें स्वयं की कमी देखने की, सुनने की योग्यता नहीं होती।

अपनी कमी सुनने-सुधारने वाले का ही कल्याण संभव

स्वयं की कमी को नहीं सुनने वाला व्यक्ति हितशिक्षा देने वाले को उपकारी मानने के बजाय उस पर क्रोध करता है, उसका भला कभी नहीं होता, यह निश्चित बात है। जिसमें स्वयं की कमी सुनने की क्षमता ही न हो, उसका कल्याण किस प्रकार हो सकता है? आप यहां व्याख्यान सुनने के लिए आते हैं या वखाण? यहां जीवाजीवादि के स्वरूप की व्याख्या चलती हो तो आपको रुचिकर लगता है या आपका वखाण-प्रशंसा आपको रुचिकर लगती है? यहां आने का हेतु क्या है? कमी सुनने का या प्रशंसा सुनने का? आप आप में रही हुई कमियों को दूर करने के लिए यहां आते हैं और हम आपका वखाण करें, यह कैसे हो सकता है? हमें आपकी कमी बतानी चाहिए या नहीं? अमुक-अमुक कमियां अमुक-अमुक रीति से दूर की जा सकती है, ऐसा हमें कहना चाहिए या नहीं? कल्याण चाहते हो तो कमी सुनने और उसे दूर करने के लिए सदा तैयार रहो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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