तत्वज्ञानी महापुरुषों ने संसार के सभी पदार्थों का विचार कर आत्मा के स्वभाव
को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनने का उपदेश दिया है, क्योंकि
आत्मा के शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकरण के बाद शाश्वत काल वह शुद्ध ही रहता है, उसमें
परिवर्तन नहीं आता है। दुनियावी पदार्थ नाशवंत हैं, कितनी ही मेहनत व
कितने ही पाप करके दुनियावी पदार्थ प्राप्त किए हों, फिर भी वे पदार्थ
टिकने वाले नहीं हैं। कई लोग तो उन्हें प्राप्त करने के बाद इस जीवन में ही खो
देते हैं। प्राप्त सुख चला जाए, यह किसी को पसन्द नहीं है, फिर
भी पदार्थों का वियोग निश्चित है, तो फिर उन पदार्थों में संयोग का सुख पाने
के लिए प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमत्ता है?
प्राप्त सुख का साधन स्थाई हो तो प्राप्त सुख स्थाई रह सकता है। वह सुख आत्मा के
सिवाय किसी में नहीं है। अतः अपनी आत्मा को ऐसी शुद्ध बना दें कि अनंतकाल के बाद
भी शुद्धस्वरूप में परिवर्तन होने न पाए। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त है, तब
तक आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती है। पुण्य-पाप से रहित बनने पर ही आत्मा
शाश्वत सुख में स्थिर हो सकती है। उस स्थिति को पाने का वास्तविक उपाय ही जैन धर्म
है। आत्मा को पाप व पुण्य से रहित बनाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र की आराधना बताई गई है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी ही मोक्षमार्ग है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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