आत्मा, पुण्य, पाप
आदि का जिसे खयाल नहीं और जो दुनियावी सुख का तीव्र पिपासु है, ऐसा मनुष्य, जगत के लिए श्रापरूप न बने तो एक
आश्चर्य ही होगा। विषय-कषाय में आनंद और अर्थ-काम के योग में सुख मानने वाले
मनुष्य हिंसक पशुओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। स्वार्थी मनुष्य जितना उपद्रव मचाता
है, उतना उपद्रव पशु भी
नहीं मचाते हैं। संसार में आसक्त मनुष्य में दुनियावी पदार्थ पाने व उन पदार्थों
के संग्रह-संरक्षण की जो भूख होती है, वैसी भूख और संग्रहवृत्ति पशुओं में भी नहीं होती है। पाप के प्रति उपेक्षाभाव
रखने वाला मानवी योजनापूर्वक जो अमर्यादित हिंसा करता है, उतनी हिंसा पशु भी नहीं करता है। मनुष्य योजनापूर्वक
पाप करता है और उन पापों को छिपाता है। कई ऐसे ठग होते हैं जो सरकार से भी पकडे
नहीं जाते हैं और कदाचित् पकडे जाएं तो वकीलों द्वारा अपना बचाव कर लेते हैं। आज
मनुष्य मात्र के सभी पाप प्रकट हो जाएं तो कानून के हिसाब से ही कितने लोग जेल से
बाहर रहने योग्य निकलेंगे? ऐसे
मनुष्यों को मानव कहें या राक्षस, यही
विचारणीय है। जगत में ऐसे मनुष्य ज्यों-ज्यों बढते हैं, त्यों-त्यों उपद्रव भी बढते हैं, यह स्वाभाविक है।
मनुष्य ऐसे अधम कार्य कर सकता है, इस कारण ज्ञानियों ने मनुष्य भव की
प्रशंसा नहीं की है, बल्कि
धर्मशास्त्रकारों ने उसी के मनुष्य भव की प्रशंसा की है, जो मुक्ति की साधना के लिए आगे बढे हों। मनुष्य भव की
उत्तमता मुक्ति की साधना के कारण है। मनुष्य को मनुष्य बनना है और प्राप्त मानव भव
को सार्थक बनाना है तो आत्मा का भान करना चाहिए, पशु सुलभ निर्विवेक तथा देव सुलभ भोगमयता का त्याग
करना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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