गुरुवार, 3 नवंबर 2016

तृष्णा का वेग रोकिए



जिस तरह ईर्ष्या अशान्ति की उत्पादक है, उसी तरह तृष्णा भी अशान्ति उत्पन्न करने के साथ-साथ उसमें वृद्धि भी करती है। आज जिधर देखो उधर तृष्णा पर अंकुश नहीं होने से उसमें दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। व्यक्ति बूढा होता जा रहा हो, तब भी उसकी तृष्णा बूढी नहीं होती, बल्कि भौतिकता की चकाचौंध और सुविधाओं के सैलाब से खुराक पाकर वह और अधिक जवान होती जाती है। तृष्णा के योग से आवश्यकताएं बढती ही जाती हैं और उन्हें पूर्ण नहीं किए जा सकने के कारण अशान्ति तैयार रहती है।

आज के शान्ति-रसिक तो इच्छाओं पर नियंत्रण रखने की बात का ही विरोध करते हैं और कहते हैं कि इच्छाओं का निरोध क्यों किया जाए? मन में इच्छाएं ही नहीं तो जीने में क्या रस? उन्हें कौन समझाए कि इच्छाएं जीवन में रस नहीं घोलती, अपितु अशान्ति का विष घोलती है, उन्हें कौन समझाए कि इच्छाएं आकाश के समान अनंत होती हैं, एक इच्छा पूरी होने के साथ ही दूसरी इच्छा तैयार खडी रहती है। जैसे-जैसे इच्छाओं की पूर्ति होती जाएगी, नई-नई इच्छाएं पैदा होती जाएंगी और अशान्ति बढती ही जाएगी।

ज्ञानी पुरुष तो फरमाते हैं कि व्यर्थ की इच्छाएं करने से भी क्या लाभ? इच्छाओं की वृद्धि ही अशान्ति है। ऐसी इच्छा करने वाले जानबूझकर अपने जीवन की शान्ति का नाश करते हैं। निरंकुश इच्छाएं करने वाला व्यक्ति आजीवन शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता। मैंने इतना-इतना किया फिर भी मुझे उसका वांछित लाभ नहीं मिला’, यह सोच भी अशान्ति है और यह अशान्ति मरते समय भी उसे कष्ट देती है।

तृष्णा की तरंगों में नृत्य करने वाले मनुष्य की मृत्यु के समय की दशा देखकर हृदय द्रवित हो उठता है। कोई धर्म की बातें सुनाने आए तो भी वह सुन नहीं सकता है, क्योंकि उसका मन उद्विग्न रहता है, वह असंतोष की भावना से ही पीडित, व्यथित रहता है। उसे न तो जीतेजी शान्ति रही और न ही मृत्यु के समय शान्ति है। यदि शान्ति चाहते हो तो जीवन को शान्त बनाइए। उसे शान्त बनाने के लिए तृष्णा के वेग को रोकना पडेगा अथवा उसकी दिशा बदलनी होगी।

मन का वेग रोकना कठिन है, पर यदि वेग को न रोका जा सके तो उसकी दिशा बदल दीजिए। ऐसा किए बिना केवल तृष्णा की तरंगों में बहते रहे तो परिणाम भयंकर होगा। ज्ञानी पुरुषों के प्रस्तुत विचार यदि जीवन में उतर जाएं तो तृष्णा की तरंगें अपने आप दब जाएं, परन्तु वे विचार जीवन में उतारने के लिए और उन्हें कितनी भी, कैसी भी कठिन परिस्थितियों में अखण्ड रखने के लिए जीवन को मर्यादा में रखना पडता है। जब तक तृष्णा का पार नहीं है, तब तक प्राणी मात्र के कल्याण की भावना आ ही नहीं सकती।-सूरिरामचन्द्र

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