अमूल्य मानव जीवन आयु के अनुरूप चेष्टाओं में ही नष्ट
कर डालना विवेकी मनुष्यों के लिए लज्जास्पद है। जो पुरुष बचपन में विष्टातुल्य
मिट्टी में लीन रहते हैं, युवावस्था
में काम-चेष्टा में लीन रहते हैं एवं वृद्वावस्था में अनेक प्रकार की दुर्बलताओं
से पीडित रहते हैं, वे
किसी भी आयु में पुरुष नहीं हैं, अपितु
बाल्यावस्था में शूकर, युवावस्था
में गर्धभ हैं और वृद्धावस्था में अत्यंत वृद्ध बैल हैं।
मानव जन्म पाकर भी बचपन में माता की ओर ताकते रहने, युवावस्था में पत्नी का मुँह ताकते
रहने और वृद्ध अवस्था में पुत्र का मुँह ताकते रहने में मूर्खता है। जो मनुष्य
सिर्फ धन की आशा और भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षाओं में विह्वल होकर अपना जन्म
दूसरों की नौकरी में, कृषि
में, अनेक आरम्भ युक्त व्यवसाय
में एवं पशुपालन में व्यतीत करते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ नष्ट करते हैं। जो मनुष्य अपना जीवन धर्म-क्रियाओं में व्यतीत करने के बदले सुख के समय
काम-वासना में एवं दुःख के समय दीनतापूर्ण रुदन में व्यतीत करते हैं, वे मोहान्ध हैं। क्षण भर में अनेक
कर्मों के समूह को क्षीण करने की क्षमता वाले मनुष्य-जीवन को पाकर भी जो पाप-कर्म
करते हैं, वे सचमुच पापी हैं।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र के पात्ररूपी
मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य पाप करते हैं, वे स्वर्ण पात्र में मदिरा भरने वाले हैं। स्वर्ग एवं
मोक्ष प्राप्त कराने वाले मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य नरक प्राप्त करानेवाले
कर्मों में उद्यमशील रहते हैं, वे
सचमुच खेद उत्पन्न कराने वाले हैं, क्योंकि ऐसे मनुष्यों को देखने से हितैषी सज्जनों को वास्तव में खेद होता है।
जिस मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए अनुत्तर देवता
भी प्रयत्नशील रहते हैं, उस
मानव जीवन को पाप कार्यों में नष्ट कर डालना पुण्यशाली मनुष्यों का कार्य नहीं है, अपितु पापियों का ही कार्य है।
जीवन को हर वक्त समस्याओं, निराशाओं
और नासमझी के साथ जीना जीना नहीं है, मात्र जीवन का बोझ ढोना ही है। ऐसे व्यक्ति बहुमूल्य मानव जन्म को नष्ट कर
अक्षय सुख-शान्ति-आनंद से वंचित ही रहते हैं।
अतः पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल एवं सार्थक
करने के उपाय करने चाहिए। उसे सार्थक करने के लिए मुक्ति का लक्ष्य बनाकर अर्थ एवं
काम की आसक्ति से बचने, जिनेश्वर
देव की सेवा में ही आनंद अनुभव करने, सद्गुरुओं की सेवामें रत रहने तथा श्री वीतराग परमात्मा के धर्म की आराधना में
निरंतर प्रयत्न करने अर्थात् भाव सहित अनुकम्पा-दान एवं सुपात्र-दान देने, शील-सदाचार का सेवक बनने, तृष्णा का नाश करने वाले तप में रत
रहने और अपने साथ दूसरों की कल्याण-कामना करने, मैत्री आदि चार एवं अनित्यादि बारह तथा अन्य भावनाओं
का सच्चे हृदय से उपासक बनने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी मानव-जन्म की सार्थकता
है।-सूरिरामचन्द्र
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