ज्ञान-बुद्धि एवं सामग्री का जैसा सदुपयोग इस मनुष्य
जीवन में होना चाहिए, वैसा
यदि न हो तो, वैसा
करने के लिए अन्य कोई भी स्थान नहीं है। जब तक आत्मा और आत्मा के धर्मों का स्वरूप
समझ में न आए, तब
तक कोई भी अपना कर्तव्य यथास्थित स्वरूप में नहीं कर पाएगा। जिस दिन हर व्यक्ति
अपनी जिम्मेदारी समझ जाएगा, उस
दिन विग्रहों का स्वयं शमन हो जाएगा। हम अपना कर्तव्य नहीं समझ पाते उसका मुख्य
कारण है कि हम ‘आत्म-तत्व’ को ही भूल गए हैं।
‘मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना
है’, यह विचार जो प्रत्येक
व्यक्ति के मन में सदैव जीवित-जागृत रहना चाहिए, वह बिसर गया है। ‘यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है।
मैं मरने वाला हूं, यह
खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी जीवन को मोक्ष मार्ग का
आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं।
सिर्फ वर्तमान की क्रियाएं, पेट भरना, बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? पशु-पक्षी और तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं
और आपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में
भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा
रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन
से च्युत हुए बिना नहीं रहता है।
आज तो अधिकांश रूप से मात्र वर्तमान काल की और वह भी
विवेकशून्य चिन्ता ने ही मनुष्य के मन पर स्वामित्व स्थापित कर लिया है। प्रत्येक
दार्शनिक ने स्वीकार किया है कि ‘यदि
भविष्य में सुखी होना हो तो वर्तमान के कष्टों की चिन्ता मत करो।’ सिर्फ वर्तमान की दृष्टि का अनुसरण
करने से सारे जीवन के सार का विवेक प्रकट नहीं हो सकता। अच्छे-बुरे का भेद कर सके, ऐसी योग्यता भी प्राप्त हो जाए, तो भी वह एकमात्र वर्तमान की
दृष्टि के अनुसरण से स्वयं ही नष्ट हो जाती है। वर्तमान में कुछ भी स्थिति हो, परन्तु भविष्य में क्या? इसका पहले विचार करना चाहिए।
क्या भविष्य के लाभ के लिए व्यापारी अनेक कष्टों को
नहीं उठाता? उसका
मन-वचन एवं काय अहर्निश किस चिंतन में रहता है? मनुष्य को जिस भविष्य का विचार करना है, उसे छोडकर यदि कोरे वर्तमान में ही
चिपका रहे, तो
वह अपने कर्तव्य से च्युत हुए बिना नहीं रहेगा। इससे अनेक अनिष्ट स्वयं उत्पन्न हो
जाएंगे। अनंत शक्ति का स्वामी आत्मा, जिस प्रकार की चिंता, विकल्प
एवं अपार आधि-व्याधि-उपाधि के दुःख का अनुभव कर रहा है, उन्हें नष्ट करने हेतु दीर्घ दृष्टा बनना पडेगा।
भविष्य हेतु विचारक बनना पडेगा।-सूरिरामचन्द्र
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