रविवार, 1 जुलाई 2012

कर्मसत्ता की प्रबलता


कर्मसत्ता की स्थिति बिलकुल भिन्न है। मनुष्य विचार कुछ करे और परिणाम कुछ और आए। परिश्रम दुश्मन को मारने का करे और दुर्भाग्य का उदय हो तो स्वयं की योजना में स्वयं ही फंसकर मर जाता है। कर्मसत्ता के इस खेल से इंसान को धर्मसत्ता ही मुक्त बना सकती है और कर्मसत्ता से मुक्त न हो, वहां तक कर्मसत्ता की कृपा टिका सकती है। परन्तु, धर्मसत्ता की शरण भी कर्मसत्ता कुछ कमजोर बने तब ही स्वीकार की जा सकती है। कर्म की लघुता हुए बिना सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

सम्यक्त्व आदि प्राप्त होने पर भी कर्मसत्ता प्रबल होती है तो भोग-त्याग और संयम-साधना में वह अंतरायभूत होती है। भगवान श्री अजितनाथ स्वामी के साथ संसार छोडने के लिए उनके भाई सगर आदि तैयार हुए थे, किन्तु हुआ क्या? चक्रवर्ती बनने का पुण्यकर्म ऐसा प्रबल था कि संयम ग्रहण करे तो भी उसका आजीवन पालन नहीं कर सकते थे।

जो इस प्रकार का निकाचित कर्म होता है, उसको भोगने से ही छुटकारा होता है। भगवान श्री जिनेश्वर देव वीतराग और सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थ की स्थापना करते हैं, देशना देते हैं, समवसरण में विराजमान होते हैं, विहार में स्वर्णकमल के ऊपर पैर रखते हैं, यह सब क्यों? पूर्व में तीर्थंकर नामकर्म निकाचित बांधा था, इसलिए। चक्रवर्ती का पुण्यकर्म भी ऐसा ही होता है कि एक बार तो छः खण्ड का विजेता बनना ही पडता है और एक लाख बानवे हजार स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण करना ही पडता है। इसके बाद सुन्दर भवितव्यता वाली लघुकर्मी आत्माएं त्याग कर सकती हैं। तद्भवमुक्तिगामी आत्माएं चक्रवर्ती होने पर संयम की साधना भी कर सकती हैं, केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करें, यह बात पृथक है। इसी प्रकार से सम्यक दृष्टि आत्मा भी तथाप्रकार के अंतरायकर्म के कारण संयम साधना नहीं कर सकती है, यह शक्य है।

कर्मसत्ता की ऐसी प्रबलता पर विचार करो कि जिससे कर्मबंधन की प्रवृत्ति रूक्ष हो जाए और धर्मसत्ता की शरण में रहकर कर्मसत्ता से सर्वथा मुक्त बनने का शक्य प्रयत्न करने के लिए तैयार हो जाए। कर्म के उदय के समय में आत्मा विवेकी बनकर रहता है, तो उदय में आए हुए कर्म जाने के साथ दूसरे भी बहुत से कर्म चले जाते हैं। सब कर्म कोई निकाचित नहीं होते हैं कि जिससे निर्जरा के प्रयत्न के द्वारा हटे नहीं। जो कर्म बांधा वह मानो कि उदय में आया और उसने अच्छी या बुरी सामग्री लाकर रखी, किन्तु उस वक्त आत्मा उसमें लुब्ध होकर गृद्ध नहीं होती, अपितु समभाव से उसको सहन करे तो कर्मसत्ता को भागना ही पडेगा। पुण्ययोग से प्राप्त सामग्री में जो आसक्त नहीं बने, वे बच गए और जो आसक्त बने वे डूब गए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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