दोषों का नाश हो और गुण
प्रकट हों, यही धर्मदेशना का हेतु
हो सकता है। धर्मदेशक का ध्येय यही होना चाहिए। सच्चा धर्मदेशक इसी ध्येय का
अवलंबन लेकर उपदेश देता है। धर्मदेशक के हृदय में दोष-नाश और गुण-प्राप्ति, इसके अतिरिक्त कामना को स्थान ही
नहीं होना चाहिए। सच्चा धर्मदेशक जीवा-जीवादिक तत्त्वों के स्वरूप का विवेचन करता
हो या कथा के द्वारा उपदेश प्रदान करता हो, किन्तु उसका आशय तो यही होना चाहिए कि ‘दोष नष्ट हों और आत्मा के गुण
प्रकटें’।
इसी हेतु से धर्मदेशक
जहां दोषों का वर्णन आता है, वहां दोषों की त्याज्यता समझाने के लिए और ये दोष किस-किस प्रकार से आत्मा को
उन्मार्ग का उपासक बना देते हैं, इसका खयाल देने के साथ ही इन दोषों से किस प्रकार बचा जा सकता है, यह समझाने के लिए दोष और दोषित
दोनों के स्वरूप आदि वर्णन करते हैं। इसी प्रकार जहां गुण का वर्णन आता है, वहां भी गुण से होने वाले लाभ और
गुणवान आत्माओं की करणी किस प्रकार होनी चाहिए इत्यादि समझाकर गुणों के प्रति
श्रोतागण आदर वाले बनें,
इस
प्रकार का वर्णन करें।
कल्याणकामी आत्माओं को
दोषितों के संसर्ग से बचाने और सच्चे गुणवानों के संसर्ग में स्थापित करने की
कामना धर्मदेशक में होनी चाहिए। इसी कारण से दोषितों को लक्ष्य करके होने वाले
दोषों का वर्णन करना, यह जैसे निन्दा नहीं है, उसी प्रकार सच्चे गुणवानों को
अनुलक्ष्य करके किए जाने वाले गुणों का वर्णन, यह मिथ्या प्रशंसा भी नहीं है। एक कवि की पंक्तियां
हैं-
सांची ने झूठी कहे, तेतो निंदा होय
सांच कहे समझायवा, तेतो निंदा न जाणो कोय
धर्मार्थी श्रोताओं को
तो खास करके इस बात को भी समझ लेना चाहिए। कारण कि धर्म के विरोधियों की तरफ से इस
प्रकार से भी भद्रिक आत्माओं को बहकाने का प्रयत्न होता है। यह असंभवित नहीं है।
हम यशोलिप्सा के योग से
सन्मार्ग से विमुख बनने वालों आदि का वर्णन करेंगे तो यह निन्दा है। हम तो ऐसी भी
आत्माओं के कल्याण की ही कामना करते हैं, यह निर्विवाद बात है। किन्तु, ऐसी आत्माएं स्वयं का अकल्याण साध रही हैं। इस प्रकार समझाकर, उस प्रकार से भी अकल्याण को साधने
वाले नहीं बनें, उसकी विशेष सावधानी
रखनी चाहिए। विरोधी इसे निन्दा कहें, यह तो स्वाभाविक है। समझ रहित व्यक्तियों को समझाने का हम शक्य प्रयास करें, फिर भी वे न समझें तो उनकी
भवितव्यता। सचमुच अज्ञान यह महाकष्ट है। अज्ञान को सज्ञान बनाने का प्रयत्न करना, परन्तु अज्ञानी की बातों से व्यथित
नहीं होना है। विरोधियों से प्रेरित होकर अथवा ऐसे-वैसे भी अज्ञानी आत्मा चाहे
जितनी टीका या निन्दा करे,
इससे
धर्मी धर्म का त्याग नहीं करता है। धर्मदेशक अपने इन कर्तव्यों को अच्छी तरह समझकर
ही व्यवहार करता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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