श्रावक को अपने
आश्रितों, मित्रों और स्नेही
बंधुओं आदि को धर्म से जोडने के प्रयत्न करने चाहिए। स्वयं धर्म करना, दूसरों को प्रेरणा देकर धर्म
करवाना और धर्म करने वालों की अनुमोदना करना; तीनों समान परिणामी हैं। बच्चा सरकस अथवा सिनेमा आदि
जाए तो मना नहीं करते और यह कहते हैं कि ‘जमाना ही ऐसा है’। यदि वह पूजा नहीं करे तो यह कह देंगे कि इस पर पढाई
का बोझ बहुत ज्यादा है। क्या वास्तव में ऐसा कहने वाले जैन माता-पिता अपनी संतान
के हितचिंतक हैं? जैसे पुत्रों को
सुपुत्र बनना चाहिए, वैसे माता-पिता को भी
तो हितैषी माता-पिता बनना चाहिए।
जैन शासन की परम्परा
में असंख्य राजा हुए, परन्तु एक भी राजा
दीक्षा लिए बिना नहीं मरा। आज आपने जैन शासन की इस परम्परा को तोड दी है। शरीर
जर्जर हो जाए तब भी संसार का राग नहीं छूटता, यह कैसी विडम्बना है? जीवन में जैन धर्म का क्या महत्त्व है, यह इसी बात से स्पष्ट है कि जिन
धर्म के बिना यदि चक्रवर्तीपना मिले तो भी समकिती श्रावक उसकी इच्छा नहीं करता और
जिनधर्म के साथ दासपना मिल जाए तो भी समकिती उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है।
देवता को विरति यानी
दीक्षा लेने एवं व्रत-पचक्खाण करने के भाव-परिणाम नहीं आते और बिना इसके मोक्ष
नहीं। मानव भव में यह सुलभ होने से मानव भव में ही मोक्ष है। इसलिए समकिती आत्मा
मानव भव के लिए लालायित होते हैं। देवता भी श्रावक परिवार में जन्म लेने को तरसते
हैं। श्रावक परिवार में ऐसा क्या है कि देवता भी यहां जन्म चाहते हैं? श्रावक रोज त्रिकाल जिन पूजा, उभयकाल आवश्यक, गुरु वंदन, व्याख्यान-श्रवण तथा संयम के मनोरथ आदि करता है।
श्रावक यथाशक्ति अपने मकान में जिन मन्दिर, पोषधशाला और संयम के उपकरण रखता है। और ऊंचे संयम के
मनोरथ करता है।
संयम देवलोक में नहीं
है। इसी कारण देवता भी श्रावक कुल में जन्म चाहता है। जैन श्रावक कुल में उत्पन्न
पुण्यवान या पापवान? जिसके घर में संयम की
भावना वाले जन्म लेवे, वह कुल पुण्यवान या
पापवान? जिसके घर में बालक को
संयम के भाव प्रकट होवे,
वहां
बडे क्या सोचें? यदि पुण्यवान हों तो वे
यही सोचें कि अहोभाग्य हमारा कि जिससे हमारे घर में ऐसे पुण्यशाली का जन्म हुआ है।
श्रावक कुल की मर्यादा और इज्जत रखने के लिए ये विचार आवश्यक हैं। लेकिन, मोह के फंदे से छूटना आसान नहीं
है। मोक्ष प्राप्ति हेतु भगवान के बताए मार्ग दीक्षा को अंगीकार करने में कोई
अंतराय करे तो वह हितचिंतक नहीं रहता। अति मोह में मोहान्ध हो जाए उस बडे का
बडप्पन नहीं रहता। सब मर्यादा में होता है, मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता। इन सब पर श्रावक
शान्त-चित्त से सोचे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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