आज श्रावक-कुल जैसे
उत्तम कुल के संस्कार कितने अधिक नष्ट हो गए हैं? घर के मुखिये को घर का कोई भी व्यक्ति आराधना से
वंचित रह न जाए उसकी चिन्ता हो, ऐसे घर कितने हैं? आपको अपना पुत्र
इज्जतदार, पेढीदार या धनवान बनाने
की जितनी चिन्ता है, उतनी ही चिन्ता वह धर्म
का आराधक बने इस बात की है क्या? पुत्र पेढीदार अथवा धनवान न बन पाए, उसमें अधिक हानि है या वह धर्महीन बनकर इस मंहगे जीवन को नष्ट कर दुर्गति के
कर्मों का बंध करे, उसमें अधिक हानि है?
अपनी संतानों को
सांसारिक कार्यों में कुशल बनाने में आप जितने उत्सुक हैं, उतनी उत्सुकता उन्हें धर्मात्मा बनाने में है? पुत्र पूजा, सामायिक आदि न करे तो उसके लिए
कितना खटकता है और विद्यालय अथवा दुकान पर न जाए तो उसके लिए कितना खटकता है? इन दोनों के मध्य का अंतर तो निकाल
कर देखें। सचमुच, आज पारस्परिक सच्ची
कल्याण भावना लुप्त होती जा रही है। आज तो प्रायः यह दशा है कि पिता, पुत्र, माता, भगिनी आदि संबंधी एवं स्नेही परस्पर आत्मा के शत्रु रूप बने हैं।
संबंधी अथवा स्नेही के
आत्मा की क्या दशा होगी,
यहां
से मृत्यु के पश्चात उनकी क्या गति होगी, उन्हें धर्म पुनः कब प्राप्त होगा और कब वह जन्म-मरण आदि के इन अनन्त काल से भोगे
जाते दुःखों से मुक्त होगा?
इस
प्रकार के वास्तविक कल्याणकारी विचार करने का भाव तो आज प्रायः नष्ट हो गया है।
मानो पर-भव है ही नहीं, पुण्य-पाप है ही नहीं, इस प्रकार आत्मकल्याण की अवहेलना
करके आज अनेक व्यक्ति वर्तन कर रहे हैं। इस दशा से सुकुल भी मुक्त नहीं रह सके।
अतः सुकुलों में भी धार्मिक आत्मा उत्पन्न न हो अथवा धर्म में तत्पर बने आत्मा भी
कुसंग से धर्महीन बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।
श्रावक जैसे उत्तम कुल
में तो परस्पर कल्याण-भावना के झरने बहते रहने चाहिए। जो कोई पुण्यात्मा
श्रावक-कुल को प्राप्त करे,
वह
इस जीवन में ऐसा कर जाए कि जिससे उसका संसार अत्यंत परिमित बन जाए, ऐसा श्रावक-कुल का वातावरण होना
चाहिए। श्रावक-कुल में रहे हुए नौकर, इतर जाति के होते हुए भी धर्म में रुचि वाले बन जाएं, ऐसे उत्तम कोटि के आचार एवं विचार श्रावक-कुलों में
प्रवर्तमान होने चाहिए।
श्रावकों के घर के
पशुओं पर भी उत्तम छाँया पडे, ऐसा श्रेष्ठ रहन-सहन उत्तम श्रावकों का होना चाहिए। इसके साथ जब हम आज के
श्रावक-कुलों की दशा का विचार करते हैं, तब स्वाभाविक ग्लानि उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती। उत्तम गिने जाते श्रावक
परिवारों में भी आज बिगाडा प्रविष्ट होता जा रहा है। नामांकित कुलों में भी आज
धर्म-संस्कार नष्ट होता जा रहा है। खाने-पीने की, पहनने-ओढने की और घुमने-फिरने आदि की स्वच्छंदता बढती
जा रही है, यह चिंता का विषय है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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