बुधवार, 11 जून 2014

पौद्गलिक वासनाएं विषतुल्य हैं


आत्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिए पाप मात्र से निवृत्त होकर संयम और तप का विशिष्ट सेवन अत्यावश्यक है, लेकिन गृहस्थ जीवन में ऐसा उत्तम जीवन जीना संभव नहीं है। इसलिए सर्वश्रेष्ठ उपाय तो संसार का त्याग कर दीक्षा स्वीकार करना तथा दीक्षा स्वीकार करने के बाद अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा की आज्ञानुसार निर्ग्रन्थ आचार में अपनी शक्ति का उपयोग करना है। जो आत्माएं इसी तरह संसार का सम्पूर्ण त्याग कर साधु-धर्म के पालन में असमर्थ हों, वे आत्माएं भी देशविरति (आंशिक विरक्ति) हिंसा आदि पापों का त्याग कर सकती हैं। गृहस्थ के लिए दूसरा कोई धर्म नहीं है। धर्म तो जो है, वही है; परन्तु गृहस्थ सर्वांग रूप से धर्म का पालन नहीं कर सकते हैं, अतः उन्हें देशविरति (आंशिक) पालन के लिए कहा गया है और उसी को गृहस्थ धर्म कहा है।

गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले का भी ध्येय तो उच्चकोटि के धर्म का पालन करने का ही होना चाहिए। जितने अंश में धर्म का पालन न हो उतने अंश में अपनी पामरता, कमजोरी समझकर पश्चाताप करते हुए अपने सत्व गुण को विकसित करने का प्रयत्न लक्ष्य-प्राप्ति तक लगातार करते रहना चाहिए। मदारी सांप से आजीविका चलाता है, किन्तु कितना सावधान रहता है। मदारी सांप का जहर निकाल देता है, फिर भी वह सांप नुकसान न पहुंचाए, इसलिए सावधान रहता है। जरूरत पडने पर व्यक्ति विषैली दवाई का उपयोग करता है, परन्तु वह जहर पेट में न चला जाए इसके लिए सावधान रहता है। इसी प्रकार संसार से भय लग जाना चाहिए, संसार के सुख भी दुःखरूप लगने चाहिए, क्योंकि संसार की पौद्गलिक वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, यह खयाल सतत रहना चाहिए।

पाप बिना दुःख नहीं और धर्म बिना सुख नहीं’, ऐसा बोलने वालों की दुनिया में कमी नहीं है, परन्तु इस बात को स्वीकार कर जीवन में आचरण में लाने वाले बहुत थोडे ही लोग हैं। उसमें भी धर्म और पाप के वास्तविक स्वरूप को समझने वाले बहुत कम हैं। दुनिया में अधिकांश लोग पाप से डरते नहीं हैं, पाप करने से पीछे नहीं हटते हैं, इतना होने पर भी वे अपने आपको पापी नहीं मानते हैं। हित-बुद्धि से कोई उन्हें पाप से बचने के लिए कहे तो भी सहन नहीं होता, ऐसी स्थिति में दुःख कहां से जाए और सुख कहां से आए?

जो लोग समझते हैं कि पौद्गलिक वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, उन्हें आत्म-स्वभाव को प्रकट करने में सहायक प्रवृत्तियों में रस पैदा करना चाहिए और आत्महित में बाधक प्रवृत्तियों में से रस उड जाना चाहिए। इस प्रकार करने पर ही दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति हो सकती है। इसके बिना अनंतकाल से दुःख का अनुभव करते आए हैं और धर्म में प्रयत्न नहीं होगा तो भविष्य में भी दुःख निश्चित है।- आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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