मंगलवार, 29 जुलाई 2014

धर्म के फलस्वरूप पौद्गलिक सुखों की मांग अयोग्य


लक्ष्मण और रावण दोनों पूर्व भव में जैन साधु थे। उन्होंने दीक्षा के फलस्वरूप क्रमशः स्त्री एवं राज्य प्राप्ति की लालसा की, जिसे शास्त्रीय भाषा में नियाणाकहते हैं। जैन साधु के रूप में उन्होंने खूब तपस्या की। उस तपस्या के परिणाम स्वरूप वे वासुदेव और प्रतिवासुदेव हुए। वासुदेव और प्रतिवासुदेव के भव में नियाणे के प्रभाव से बहुत सुन्दर रानियां एवं राज्य मिलता है, किन्तु यह बहुत दुःखदायी होता है। इन्होंने पूर्व भव में नियाणा (लालसा) करके दीक्षा पालने के अपूर्व फल को ताक में रखकर एक तरह से ऐरावत के बदले गधा प्राप्त करने जैसा कार्य किया।

धर्म के फलस्वरूप पौद्गलिक सुखों को मांगना एक अयोग्य मांग है। जिसका परिणाम भयंकर होता है। धर्म का वास्तविक फल मुक्ति जब तक नहीं मिले, वहां तक स्वर्ग, राज्य, रिद्धि-सिद्धि आदि मिलते ही हैं; परन्तु मांगने से तो भवांतर में धर्म की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है और नरक के परिणाम भी भुगतने पडते हैं। ब्रह्मचर्य पालने से भी स्वर्ग के सुख अवश्य मिलते हैं, परन्तु देवलोक की अप्सराओं का मोह अथवा शत्रुओं को मारने की शक्ति पाने हेतु ब्रह्मचर्य को पालना तारक के बदले मारक बन जाता है।

नियाणा करके संयम के मूल को खो देने के परिणाम पाने वालों में लक्ष्मण वासुदेव और रावण प्रतिवासुदेव के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिन्हें पूर्व में किए गए जप-तप के प्रभाव से अनेक रानियां और राज्य तो मिले, परन्तु यह नियाणा स्वरूप होने से उन्हें असंख्यात वर्ष नरक का दुःख भोगना पडा। हालांकि रावण और लक्ष्मण के जीव नरकगामी होने पर भी उनके हृदय में जिनेश्वरदेव के शासन के प्रति अपूर्व श्रद्धा थी।

जैन शासन में उत्पन्न आत्मा का हृदय अति कोमल और नम्र होता है। दुर्भाग्य से वे अनेक पाप कर लेते हैं, परन्तु उनका हृदय पापों में लिप्त (अनुरक्त) नहीं होता है। अतः इन आत्माओं के हृदय में रही हुई यह कोमलता, नम्रता और जैन शासन के प्रति उनका अहोभाव उनके हृदय में ऐसा बस गया होता है कि वे नरक के दुःख भी समाधि पूर्वक सहन करते हैं। भले ही उन्हें रोना आ जाए, परन्तु उनकी आत्मा यही कहती है कि यह दुष्कर्म का विपाक है। जिसे शान्ति से सहन किया जाए। जैन दर्शन की विशेषता है कि अशुभ कर्म के उदय में यानि दुःख में भी नए कर्म नहीं आने देता।

सुख और दुःख में समकिती आत्मा कर्मों को खपाता है और मिथ्यादृष्टि आत्मा कर्म बांधता है। एक तिरता है दूसरा डूबता है। सात मंजिल का महल हो, जिसमें भोगने के लिए अप्सराओं जैसी स्त्रियां पास में हों, विषय के फुव्वारे उछलते हों, तब भी समकिती आत्मा यह मानते हैं कि यह कारागृह है। समकिती अपने परिवार में भी सुसंस्कार देता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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