गुरुवार, 3 सितंबर 2015

सम्यग्दृष्टि अनुकम्पाशील होता है



अनुकम्पा सम्यक्त्व का चौथा लिंग है। अनुकम्पा का अर्थ क्या है? दीन-दुःखियों का दिल तो उनके स्वयं के दुःख से हिला हुआ ही होता है, परंतु जो ऐसे दीन-दुःखियों को देखें, उनका दिल भी यदि कोमल होता है तो दीन-दुःखियों के दुःख को देखकर हिल उठता है। इस प्रकार दीन-दुःखियों के दुःख को देखकर दिल द्रवित हो और उससे उन दुःखों को दूर करने की यथाशक्ति प्रवृत्ति हो, उसे अनुकम्पा कहते हैं। परंतु यह अनुकम्पा पक्षपात रहित हो, यह परम आवश्यक है।

वैसे तो क्रूर से क्रूर स्वभाव के मनुष्य भी अपने-अपने पुत्र-पुत्री आदि सगे-सम्बंधियों के दुःख को देखकर दुःखी होते हैं। मनुष्य तो क्या, स्वभाव से क्रूर पशु-पक्षियों में भी अपने बच्चों आदि के दुःखों को देखकर उनके दुःख को दूर करने के भाव प्रकट होते हैं। तो इसे अनुकम्पा कहा जाए? नहीं ! क्योंकि इस प्रकार दुःख से द्रवित हो जाना और दुःख को दूर करने की प्रवृत्ति करना, ममत्व भाव को लेकर बनता है। केवल ममत्व भाव के कारण ही, अन्य के दुःख से दिल द्रवित हो और ममत्व के कारण ही उस दुःख को दूर करने की प्रवृत्ति हो, इसमें वस्तुतः अनुकम्पा का भाव नहीं है।

अनुकम्पा का भाव तो कोमल हृदय की अपेक्षा रखता है। किसी के भी दुःख को देखकर हृदय द्रवित हो और उसके दुःख को दूर करने की यथासंभव प्रवृत्ति हो, यह अनुकम्पा का विषय है। इस कारण पक्षपात रहित होकर दुःखियों के दुःख को देखकर दिल द्रवित हो और पक्षपात रहित होकर उनके दुःखों को दूर करने की यथासंभव प्रवृत्ति हो, इसे अनुकम्पा कहते हैं। इस तरह हृदय के द्रवित होने में और दुःख को दूर करने की यथासंभव प्रवृत्ति होने में वस्तुतः दृष्टि दुःखी कौन है’, इस पर नहीं होती, अपितु उस दुःखी के केवल दुःख की तरफ ही दृष्टि होती है।

अनुकम्पा के दो प्रकार हैं- द्रव्य और भाव। सम्यग्दृष्टि आत्मा सामर्थ्य के अनुसार दोनों प्रकार की अनुकम्पा करने वाला होता है। अतः अनुकम्पा सम्यक्त्व का एक लिंग मानी जाती है। अनुकम्पा का अर्थ करते हुए ऐसा भी कहा गया है कि मेरे द्वारा किसी भी छोटे-बडे, सूक्ष्म-बादर जीव को दुःख न उपजे, इस तरह मुझे बर्ताव करना चाहिए’, ऐसी मन में भावना प्रकट हो और उसे लेकर तदनुरूप जो कुछ भी बर्ताव करने की इच्छा हो और बर्ताव हो, यह भी अनुकम्पा है। जिस जीव में ऐसा अनुकम्पा भाव प्रकट होता है, वह जीव यथासंभव किसी भी दुःखी जीव के दुःख का निवारण करने का प्रयत्न किए बिना कैसे रह सकता है? अतः सम्यक्त्व का परिणाम जिस भाग्यशाली जीव में प्रकट होता है, उस जीव में अनुकम्पा भाव भी सहज-रूप से प्रकट होता है। इस दृष्टि से उसमें सम्यग्ज्ञान के उपार्जन की तथा सम्यक चारित्र के पालन की अभिलाषा भी सहज बन जाती है।-सूरिरामचन्द्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें