रविवार, 1 मई 2016

रोम-रोम में धर्म व्याप्त हो



केवल बातें करने वाले लोग धर्म की आराधना नहीं कर सकते। धर्म तो हमारे रोम-रोम में व्याप्त होना चाहिए। ज्ञानियों के एक-एक वचन के लिए सर्वस्व समर्पित करने की उत्कंठा हम में बलवती होनी चाहिए। इसके बिना योग्य आलंबनों का उचित लाभ नहीं लिया जा सकता। यदि उत्तम संगति प्राप्त होने पर भी आवश्यक सद्भावना की हृदय में उत्पत्ति न हो तो हमारा महान् दुर्भाग्य ही माना जाएगा। संसार में ख्याति प्राप्त करने के लिए अथवा किसी अन्य सांसारिक स्वार्थ के लिए जो लोग सत्य आदि धर्म के उपासक बने हों, वे सत्य आदि धर्म को हानि ही पहुंचाते हैं। उनका ज्ञान अज्ञान के समान, उनका संयम असंयम के समान और उनकी अहिंसा हिंसा के समान ही कार्य करती है। जिससे धर्म दौडा हुआ हमारे पास आए, वही शिक्षा है, वही ज्ञान है। जो शिक्षा हमें धर्म से विपरीत ले जाए, ज्ञानी और उनके वचन की हंसी कराए, ज्ञानियों द्वारा कथित अनुष्ठानों की खुले बाजार में मजाक हो, उस ज्ञान से, उस शिक्षा से किसी का भला नहीं हो सकता, उससे तो दुर्गति ही होने वाली है, विनाश ही होने वाला है, इसलिए ऐसे कुत्सित विचारों, शिक्षा और प्रयासों से हमेशा बचकर रहें और वास्तविक धर्म से अपने रोम-रोम को आप्लावित करें।-सूरिरामचन्द्र

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