बुधवार, 21 सितंबर 2016

आत्महत्या करें या फिर चोरी-डकैती सीखें?


जो सोच नहीं सकता, वह मूर्ख है।

जो सोचना नहीं चाहता, वह अंधविश्वासी है।

जिसमें सोचने का साहस नहीं, वह गुलाम है।

आप क्या हैं, इसका फैसला आपको करना है। यदि आप मूर्ख, अंधविश्वासी या गुलाम नहीं हैं तो सोचिए जरा! जिस प्रकार भ्रष्टाचार देश को दीमक की तरह चाटकर खोखला कर रहा है, उसी प्रकार आरक्षण रूपी नरभक्षी राक्षस न केवल देश की प्रतिभाओं को निगल रहा है, बल्कि देश को, हमारे सामाजिक जीवन को, लोगों के स्वास्थ्य और विकास को भी बर्बाद कर रहा है। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की आरक्षण की नीति अपने असली मकसद से भटक गई है।

उनका मकसद था दमित, दलित और समाज से कटे हुए लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाना; लेकिन हो क्या रहा है? एससी, एसटी या ओबीसी कोटे से आज जो एक मंत्री, सांसद या विधायक अथवा आईएएस, आईपीएस या अन्य प्रशासनिक सेवा में उच्चाधिकारी बन गया है, डॉक्टर या इंजीनियर बन गया है अथवा जिसने सरकार में स्थाई नौकरी प्राप्त कर ली है, क्या वो तब भी समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ है? यदि है तो उसके लिए दोषी कौन है? उसे दुबारा आरक्षण क्यों, उसके बच्चों को आरक्षण क्यों और कब तक? क्या यही वह वर्ग नहीं है जो अपने ही भाईयों को आगे नहीं बढने देकर उनका हक खा रहा है और आजादी के सात दशक बाद अब यह सम्पूर्ण समाज के लिए नासूर बनता जा रहा है।

अब तो भयंकर स्थिति यह हो गई है कि आरक्षित सीटों पर तो आरक्षित वर्ग कब्जा जमा ही रहा है, अनारक्षित सीटों पर भी वह कब्जा जमा रहा है। तो अनारक्षित वर्ग के प्रतिभावान बच्चे कहां जाएंगे? राजस्थान में सरकारी मेडिकल कॉलेजों की सीटों पर आरक्षित सीटों के अलावा जनरल सीटों पर भी आरक्षित वर्ग के बच्चों को जगह दे दी गई है। तर्क यह कि उनकी मेरिट अच्छी थी और उन्होंने जनरल में एप्लाई किया, लेकिन सवाल यह है कि जब उसने नीट की परीक्षा के लिए आवेदन किया, उस समय उसने अपने आरक्षित वर्ग का सहारा लिया या नहीं? अच्छे नम्बर आ गए तो जनरल पर कब्जा और अच्छे नम्बर नहीं आए तो आरक्षण है ही, यानी चट भी मेरी, पट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का!

तो जनरल के बच्चे कहां जाएं? आत्महत्या करें, क्योंकि सरकार ने उनके जीने के अधिकार को छीन लिया है? या फिर चोरी-डकैती सीखें? क्या करें? कोई जवाब है किसी के पास? समाज के नेताओं के पास या राजनेताओं के पास? देश की न्यायपालिका के पास?

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