सोमवार, 26 सितंबर 2016

चार उत्तम भावनाएं



आत्मा के उद्धार के लिए जीवन को चार उत्तम भावनाओं से ओतप्रोत कर लेना चाहिए- मित्रता, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थता। जिस व्यक्ति में ये चार भावनाएं प्रकट होंगी, वह निःसंदेह पाप-भीरू और धर्म-सेवी बनेगा। मित्रता की भावना से तात्पर्य है- विश्व में मेरा कोई भी शत्रु नहीं है, फिर भी कदाचित हो तो उसका भी कल्याण हो।यही परहित-चिंतन स्वरूप मित्र-भाव है। परहित चिन्तक व्यक्ति को हृदय में हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह स्थाई रूप से खटकेंगे, क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह से अन्य व्यक्ति को निःसंदेह कष्ट पहुंचता है और भावना यह है कि शत्रु का भी कल्याण हो। इन भावनाओं को हिंसा आदि पाप व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हुए बिना तो यथार्थ रूप से अमल में ला ही नहीं सकते। गृहस्थ जीवन में इन भावनाओं को पूर्णरूपेण अमल में लाना संभव नहीं है, फिर भी उस गृहस्थ में भावना तो ऐसी ही होनी चाहिए। गृहस्थ को कभी अपराधी व्यक्ति को दंड देना पडे तो वह उसका अनिष्ट नहीं सोचे, बल्कि सुधार की भावना से दंड दे।

प्रमोद भावना से तात्पर्य है कि किसी भी व्यक्ति के गुण देखकर आनंद की प्राप्ति होना। शत्रु के गुण देखकर भी हर्ष हो। इस प्रकार के गुणों की मुझ में और अन्य व्यक्तियों में भी वृद्धि हो तो अति उत्तम। करुणा भावना से आशय है कि गुणहीन, दोषी और दुःखी आत्माओं के प्रति करुणा-भाव होना चाहिए। करुणा भाव वाले व्यक्ति में उपकार करने की वृत्ति होती है। यथा अवसर योग्य जीव को उचित उपदेश देने की वृत्ति भी उसमें उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकती। करुणा भाव वाला व्यक्ति उग्र होकर भी यदि सामने वाले व्यक्ति को दोष-मुक्त कर सकता हो तो वह वैसा भी करता है।

माध्यस्थ भावना से तात्पर्य है कि करुणा भाव वाला व्यक्ति सामने वाले के सुधार के लिए जब सभी प्रयास कर ले, उसके बावजूद भी सामने वाला नहीं सुधरे और गलत मार्ग का अनुसरण छोडने के लिए कतई तैयार न हो, तब शास्त्र ने चौथा उपेक्षा भाव प्रतिपादित किया है, अर्थात् तस्य भाग्यम्। उसके लिए मुझे अपना सबकुछ बिगाडने की आवश्यकता नहीं है, जिसे चौथी माध्यस्थ भावना कहते हैं।

इन चार भावनाओं वाली आत्मा की हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह के प्रति कैसी मनोवृत्ति होगी? कदाचित वह व्यक्ति हिंसा आदि सभी वस्तुएं छोडने में असमर्थ हो तो भी उसकी मान्यता तो यही होगी कि ये पांचों वस्तु चार भावनाओं के लिए बाधक हैं।जीवन में से सुगन्ध कब प्रस्फुटित होगी? आत्मा लोकोपकारी कब सिद्ध होगी? हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं परिग्रह का संसर्ग आत्मा को मलिन बनाता है। इनके त्याग के बिना आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती और इनके त्याग के लिए जीवन में मित्रता, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थता को विकसित करना होगा।-सूरिरामचन्द्र

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