गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

पैदल विहार : एक अनुचिंतन

पैदल विहार पर यूं तो शास्त्रों में बहुत गहन चर्चा है, किन्तु आम व्यक्ति इसके महत्व को समझ सके, इसके लिए मैं बहुत ही साधारण बातें यहां प्रस्तुत कर रहा हूं, ताकि विमान यात्रा व कार-ट्रेन से विहार-यात्रा की बात कर रहे लोग भी समझना चाहें तो समझ सकें और अपना विवेक जागृत कर सकें। -डॉ. मदन मोदी
हमारे यहां त्यागमय जीवन की प्रधानता है और त्याग में धर्म माना है।
जो पैदल विहार करते हैं, जिनके मन में किसी अंचल या वस्तु विशेष को लेकर कोई आसक्ति नहीं होती, वे साधु होते हैं। वे चलते ही इसलिए हैं कि मन में जन्म-जन्मांतरों से घर किए बैठी जो आसक्तियां हैं, सुविधा-भोग की जो प्रवृत्तियां हैं, उनकी जडें किसी तरह ढीली की जाएं, उन्हें हिलाया जाए।
पांव-पैदल चलने में यही होता है। वस्तु-स्वरूप समझ में आता है। दुनिया और दुनियादारी दोनों को नजदीक से देखने का मौका मिलता जाता है। संसार की असारता का भान होता है, त्याग-वैराग्य की जडें मजबूत होती है।
बात यह है कि जो भी जल्दबाजी में होता है, वह अपच की ओर ले जाता है। उसमें अपूर्णताएं रह जाती हैं। जो लोग आहिस्ता; किन्तु पुख्ता शैली में स्थितियों को पकडते हैं, उन्हें उन स्थितियों की समीक्षा में काफी सुविधा होती है।
"चरैवेति चरैवेति" की स्थिति में बहुत कुछ हासिल होता है, लेकिन हवाई उडान से नहीं। गतिशीलता का ज्ञान और ताजगी, निर्मलता और स्वास्थ्य से गहरा संबंध है; किन्तु विमान की गति से नहीं, पैदल गतिमान रहने से। विमान द्वारा तेज चलने और कुछ भी न पाने में कोई तुक नहीं है। देखा गया है कि प्रायः जो लोग भागमभाग की जिन्दगी जीते हैं, वे खिन्न और क्षुब्ध रहते हैं। उनकी लिप्सा/जिज्ञासा लगभग मर जाती है। मार्ग का तो वे कुछ ले नहीं पाते। एक बिंदु से दूसरे बिंदू तक दौडना और कुछ भी न पाना कोई यात्रा है? यात्रा की तो सफलता ही इसमें है कि जितना अधिक बने अपने अनुभव के खजाने में डाला जाए और जितना अधिक व गहरा जाना जा सके, जाना जाए।
आँख मूँद कर विमान से एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक जाना जादू तो हो सकता है, जिन्दगी नहीं हो सकता। जिन्दगी और जादू में काफी फर्क होता है। जादू चौंकाता है, जिन्दगी यथार्थ/हकीकत की आँखें उघाडती है। चलकर ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है, तेज चलने में सत्य तो क्या अर्द्धसत्य तक पहुंच पाना भी संभव नहीं होता। श्रमण जो पैदल चलते हैं, वे मात्र जीवन की सच्चाई तक गहरी पकड बनाने और यांत्रिक हिंसा के पाप से बचने के लिए, क्योंकि उन्होंने अहिंसा का संकल्प लिया है। वे जब पैदल चलते हैं, उनकी करुणा से, उनकी भावना से उत्सर्जित तरंगें कितने जीवों को त्राण देती है, जिनका वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक आंकलन आज आसानी से किया जा सकता है।
सुविधाओं का कोई अंत नहीं है। एक सुविधा की पीठ पर चढकर दूसरी सुविधा आ धमकती है। एक शिथिलता दूसरी शिथिलता को बटोर लाती है। हम अपनी अनुकूलताओं के अनुसार परिभाषाएं बनाने-बदलने लगते हैं। क्या आप चाहते हैं कि व्रती/संकल्प का धारक अपने निर्धारित मार्ग से विचलित हो जाए?
दो स्थितियां हैं- साध्य और साधन। यदि हमें साध्य की पवित्रता को कायम रखना है तो साधनों को भी निर्मल/निष्कलुष रखने की जरूरत है। निर्मलता जब भी हो, जहां भी हो, उसे शत-प्रतिशत होना चाहिए। लोगों का ध्यान साध्य पर तो होता है, किन्तु साधन को वे भुला बैठते हैं। यह आधुनिक समाज का दुर्भाग्य है। साधु के लिए यह अपरिहार्य है कि वह साध्य और साधन दोनों की पावनता पर ध्यान दे।
मेरे विचार में यह तभी संभव है जब साधु दीन-दुनिया का अनुभव करे। पांव-पग घूमे और पैदल विहार में रस ले। उसे ग्रहण और त्याग की तात्कालिकताओं का अनुभव करना चाहिए। जब तक वह संयोग-वियोग को उनकी आत्यंतिक तीव्रताओं में महसूस नहीं करेगा, तब तक आसक्तियों को वह घटा नहीं सकेगा।

ज्ञान का और गति का गहरा संबंध है। ज्ञान के सारे पर्याय शब्द गत्यर्थक हैं। आगम, निगम, अधिगम, अवगम; सब में "गम्" धातु बिराजमान है। आगम का अर्थ है विज्ञान, प्रमाण, ज्ञान; निगम का अर्थ है पवित्र ज्ञान, आप्रवचन, प्रामाणिक कथन; अधिगम का अर्थ है सम्यक अध्ययन, या ज्ञान और अवगम के मायने हैं समझ, अंडरस्टेंडिंग। इस तरह ज्ञान गतिमय है और गति ज्ञानमय, लेकिन विमान की गति नहीं, पैदल विहार की गतिकता। साधु की यह गतिकता रुकेगी तो उसके ज्ञान की, भेदविज्ञान की तलवार जंग खा जाएगी।

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