बुधवार, 19 जुलाई 2017

कल-कल करते काल ही आता है

यहां न कुछ तेरा है, न मेरा है। न ही यह धन-सम्पत्ति, यह भौतिकता की चकाचौंध या नाते-रिश्तेदार अंतिम समय में साथ आने वाले हैं, फिर अहंकार/अभिमान किस पर? क्यों हम सिर्फ बाह्य वस्तुओं और व्यवस्थाओं के प्रति ही सजग हैं? आत्मा के प्रति हम सजग क्यों नहीं? हम भौतिक संसाधनों को जुटाने में और अधिकाधिक अर्थोपार्जन की दौड में इतने अधिक लिप्त हो गए हैं कि प्रायः चौबीसों घण्टे हमारी क्रियाएं उन्हीं पर केन्द्रित रहती हैं और हम कल का काम भी आज ही निबटा लेना चाहते हैं, लेकिन धर्म-साधना अथवा परोपकार का काम कल पर छोडते हैं और वह कल कभी नहीं आता, ‘कालही आता है। तब हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमारी आत्मा अनादिकाल से सोई हुई है। मिथ्यात्व मोह और अज्ञान निद्रा का आवरण हमारी आत्मा पर छाया हुआ है। जब हमारी आत्मा में जागृति आ जाएगी, तब हमें अपने अंतरंग शत्रु दिखाई देने लगेंगे कि इन्होंने हमारे भीतर की आत्मा को कैसे दूषित कर रखा है?
चौरासी लाख जीवयोनियों में मानव अपनी बुद्धि-प्रज्ञा के कारण ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हम इस बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग केवल रोटी-कपडे की व्यवस्था या विध्वंसक कार्यों में न करें, वर्ना मानव बुद्धि का सम्पूर्ण महत्त्व ही धूमिल हो जाएगा। हम इस प्रज्ञा का उपयोग मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में करें या यों कहें कि हमें जन्म ही न लेना पडे, ऐसा पुरुषार्थ

हम अपनी बुद्धि-प्रज्ञा द्वारा करें, जन्म-मरण की श्रृंखला का सदा-सदा के लिए निर्मोचन करें। इसके लिए अपनी बुद्धि-प्रज्ञा का उपयोग अपने आत्म-स्वरूप को जानने में करें। आत्म-चिंतन करें कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मेरे क्या कर्त्तव्य हैं? मैं जन्म-जरा और मृत्यु से किस प्रकार छुटकारा प्राप्त कर सकता हूं? विचार करें! गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने से शुभ भावों का उदय होगा, आप अन्तर्मुखी-सम्यग्दृष्टि बनेंगे और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। पुण्य के उदय से प्राप्त साधन-सामग्री का मजे से भोग-उपभोग करना यानी अपने ही हाथों अपनी दुर्गति खडी करना; इस तथ्य को गहराई से विचार करें। मानव जीवन आत्म-कल्याण के लिए है, इसे भोगोपभोग में लगाकर व्यर्थ गंवा देना स्वयं अपनी आत्मा का अपराध करना है।-सूरिरामचन्द्र

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