सोमवार, 3 जुलाई 2017

भिखारी बनाने वाली शिक्षा

"वैज्ञानिक युग के नाम पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई डॉक्टर बना। उनके कपडे तो उजलेकिन्तु उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर जैसी है। कानून पढा हुआ गुनाह करता हैकानून पढा हुआ चोरी करता हैकानून पढा हुआ किसी को ठगता हैकानून पढा हुआ सौ के बिल पर एक और जीरो बढाता हैहिसाब पढा हुआ जमा को उधार और उधार को जमा करता हैइतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता हैहिसाब-किताब की बहियां दोजुबान दोदिल में दूसरा और मुँह पर दूसराऐसी यह 21 वीं सदीसब ऐसे पैगम्बरअपराधी को निरपराधी ठहराना यह शिक्षा हैऐसी शिक्षाऐसा विद्या प्रचार यह तो जहर का प्रचार हैपढे इसलिए नीचे नहीं बैठेपढे इसलिए चायपानबीडीसिगरेट बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया है। ऐसी शिक्षा-संस्थाओं को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी संस्थाओं को नहीं दिया जाना चाहिए। यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा लगेगाबहुत कडवा लगेगाकिन्तु सच्ची शिक्षा हो तो ऐसी दशा हो?पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख मांगते हैंलोगों की दाढी में हाथ डालते हैं। आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए भीख मांग रहे हैं और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के मन में तिरस्कार का भाव जागृत हो रहा है। मैं कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले तो भूखे मरें,इसमें नई बात क्या हैविद्या जैसी अनुपम चीज पेट के लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे। पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत हो तो बात अलग हैनहीं तो कटोरे के लिए ही इस विद्या को समझना। पहिनने की टोपी में ही चने फांकने के दिन आएंगेक्योंकि आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है और भविष्य में भी होगा।"
"पापक्रिया बढीउसकी अनुमोदना बढीउसकी प्रशंसा बढी, परिणाम स्वरूप दरिद्रता और भिखारीपन आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा तो अधिक आनेवाला है। इसमें पुण्यवान को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है तब बगल वाले घर में भी जार लगती हैआँच आती है। पापी के साथ बसने वाले पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान रहेंगे तो बचेंगे। आपको सावधान करने के लिए यह मेहनत है।"
आज समाज में संस्कारों की कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा देंसमझाएंअच्छे संस्कार दें। वह माता शत्रु के समान हैजिसने अपने बालक को संस्कारित नहीं किया। वह पिता वेरी के समान हैजिसने अपने बच्चे को संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के नाम पर कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने जाएगा तो हमारा बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और बडा आदमी बन जाएगा। लेकिनवहां जो शिक्षा परोसी जाती हैउसमें आत्मा कहां हैवहां तो जहर ही जहर है।
शिक्षा के नाम पर ठगी
शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तयेका बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता हैक्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये"का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध देलेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही हैयह आप आँखों से देख रहे हैंफिर भी हम से पूछते हैं कि शिक्षण में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाताजितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं हैशासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजा’ कहावत ही नहींयथार्थ है। जब एक व्यक्ति उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर कथित बडा आदमी बन जाता हैतब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार कीउस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता हैवह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता हैजो असाधारण होजो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।
शिक्षा-व्यवस्था को बदलने की जरूरत
शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती। भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहींअपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षणयही शिक्षा का साध्य है। परन्तुआज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत हैवैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षकशिक्षक नहींअपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है। हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।
हम अपने संस्कारों का विचार करें
आज समाज की कैसी दुर्दशा हैयह गंभीर चिन्तन एवं चिंता का विषय है। पुत्र माता-पिता की आज्ञा नहीं मानताभाई-भाई को नहीं मानताभाई-बहिन के बीच खटास चलती हैदेरानी-जेठानी के झगडे जगजाहिर होते हैंचोरी, तस्करीमिलावटखोटे धंधेखान-पान सब में तथाकथित कुलीन समाज बदनाम। ऐसी स्थिति आने के कारण पर क्या कभी आपने विचार किया है? तथाकथित कुलीन कुल में जन्म लिए हुए स्त्री-पुरुषों की ऐसी हीन दशा क्या कम दुःख का विषय है?
पागलों की पैदावार बढ रही है
आपने आपकी संतानों को जिस प्रकार पढाया है और पढा रहे हैं,उसको देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि आप अच्छे माता-पिता हैं। आपने उन्हें ऐसा शिक्षण दिलाया है कि वे आपको पाठ पढावेंयहां तक तो ठीकपरन्तु आपको ही उठालें तो कोई अचरज की बात नहीं। शिक्षण किसे कहा जाएइसकी समझ आज न तो मां-बाप को है और न शिक्षकों को। और ये सब शिक्षण देने निकले हैं। ऐसे शिक्षण से तो आज पागलों की पैदावार बढ रही है। सुख में विराग और दुःख में समाधियह ऊॅंचे से ऊॅंचा शिक्षण है। ऐसे शिक्षण में प्रायः समाज के अधिकांश लोगों की रुचि नहीं हैइसलिए बहुत विकृतियां हो रही हैं। आप अपनी संतानों को स्वार्थ के लिए ही पढाते हैं। शिक्षण देकर भी आप अपकार कर रहे हैं। ज्ञान का दान करके भी अज्ञानी बनाने का काम आपने शुरू किया है। ये कमाकर लावेंयही आप चाहते हैं,परन्तु असंतोष की आग में ये जल मरेंइसकी आपको चिन्ता नहीं है। संतान को सिर्फ कमाने के लिए पढाएवह अच्छे माता-पिता नहीं। पेट के लिए विद्या पढाना पाप है।
वर्तमान विद्यार्थी-शिक्षक संबंध
वर्तमान समय में विद्यार्थी-शिक्षक का जरा भी संबंध नहीं है। क्लास लेने जितना संबंध। कोई शिक्षक जरा होशियार और कडक हो तो ठीकनहीं तो शिक्षक आए और बोलकर जाएविद्यार्थियों में जिसे गरज हो वे सुनेंबाकी के खेलें या नींद निकालेंऐसी स्थिति हैइनमें है कोई संबंधआज तो विद्या है कहांमूर्खता ही हैअन्यथा तो विद्यार्थी कभी शिक्षक के सामने छाती चौडी कर चलते हैंविद्या हो तो इन्हें कुछ भान नहीं होइनमें नम्रताविनयलघुता नहीं आए?शिक्षक भी अधिकांशतः नौकरी की खानापूर्ति के लिए आते हैं। ये भी यदि वांचन में अटकें तो शैतान विद्यार्थी तुरन्त शिक्षक की भी खिल्ली उडाएइसलिए शिक्षक भी घर से चार बार पुस्तक पढकर आते हैंऔर यह तैयार किया हुआ खोखला ज्ञान तडाकेबंद बोल जाते हैं। घण्टे-सवाघण्टे दिशासूचक लेक्चर कर रवाना हो जाते हैं। विद्यार्थी भी ऐसे कि जचे तो पढें नहीं तो हुररे...... करते देर नहीं। शिक्षक को भी लगता है कि ऐसे बंदरों को किस प्रकार पढाया जाएउसे भी बराबर टिपटॉप बनकर ही आना पडता है।

पहले के शिक्षक तो विद्यार्थी क्या पढे इसकी सावधानी रखते थे। पचास प्रश्न पूछतेदो थप्पड भी मारते और घण्टे की बजाय दो घण्टे बैठकर भी पक्का पढाते। खुद का विद्यार्थी मूर्ख नहीं रहेइसकी उनको चिंता रहती थीकिन्तु ये पढनेवाले भी विद्या के अर्थी होते थे। आज तो ऐसे विद्यार्थी हों तो पढाएं नपढाई बढे तो ऐसी प्रवृत्ति चलती हैपढे-लिखे जहां-तहां जैसा-तैसा खाते हैंपढे-लिखे रास्ते में थूंकते हैंकिसी को गाली देते हैंजैसी-तैसी बकवास करते हैंआज का विद्यार्थी तो पूछता है कि मुझे क्या मास्टर की सेवा करनी है?’ मैं कहता हूं कि जरूर करनी है। पगचंपी भी करनी पडती है। पहले के राजपुत्र भी करते थे। पाठक खुद का चित्त प्रसन्न हो तब पढाता है। राजपुत्र उपाध्याय के वहीं रहते थे और उनकी सेवा-भक्ति करते थे। विनयविवेक में जरा भी कमी नहीं और भाषा ऐसी मधुर व आनंददायी बोलते कि मानो मुख से मोती खिरते हों। उस वक्त विद्या फलती थीआज तो विद्या फूटती है।

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