शनिवार, 31 मार्च 2012

मानव जीवन की सार्थकता


अमूल्य मानव जीवन आयु के अनुरूप चेष्टाओं में ही नष्ट कर डालना विवेकी मनुष्यों के लिए लज्जास्पद है। जो पुरुष बचपन में विष्टातुल्य मिट्टी में लीन रहते हैं, युवावस्था में काम-चेष्टा में लीन रहते हैं एवं वृद्धावस्था में अनेक प्रकार की दुर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं, वे किसी भी आयु में पुरुष नहीं हैं, अपितु बाल्यावस्था में शूकर, युवावस्था में गर्धभ हैं और वृद्धावस्था में अत्यंत वृद्ध बैल हैं।

मानव जन्म पाकर भी बचपन में माता की ओर ताकते रहने, युवावस्था में पत्नी का मुंह ताकते रहने और वृद्ध अवस्था में पुत्र का मुंह ताकते रहने में मूर्खता है। जो मनुष्य सिर्फ धन की आशा और भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षाओं में विह्वल होकर अपना जन्म दूसरों की नौकरी में, कृषि में, अनेक आरम्भ युक्त व्यवसाय में एवं पशुपालन में व्यतीत करते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ नष्ट करते हैं।

जो मनुष्य अपना जीवन धर्म-क्रियाओं में व्यतीत करने के बदले सुख के समय काम-वासना में एवं दुःख के समय दीनतापूर्ण रुदन में व्यतीत करते हैं, वे मोहान्ध हैं। क्षण भर में अनेक कर्मों के समूह को क्षीण करने की क्षमता वाले मनुष्य-जीवन को पाकर भी जो पाप-कर्म करते हैं, वे सचमुच पापी हैं।

सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्चारित्र के पात्ररूपी मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य पाप करते हैं, वे स्वर्ण पात्र में मदिरा भरने वाले हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्त कराने वाले मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य नरक प्राप्त करानेवाले कर्मों में उद्यमशील रहते हैं, वे सचमुच खेद उत्पन्न कराने वाले हैं, क्योंकि ऐसे मनुष्यों को देखने से हितैषी सज्जनों को वास्तव में खेद होता है। जिस मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए अनुत्तर देवता भी प्रयत्नशील रहते हैं, उस मानव जीवन को पाप कार्यों में नष्ट कर डालना पुण्यशाली मनुष्यों का कार्य नहीं है, अपितु पापियों का ही कार्य है।

अतः पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल एवं सार्थक करने के उपाय करने चाहिए। उसे सार्थक करने के लिए मुक्ति का लक्ष्य बनाकर अर्थ एवं काम की आसक्ति से बचने, जिनेश्वर देव की सेवा में ही आनंद अनुभव करने, सद्गुरुओं की सेवामें रत रहने तथा श्री वीतराग परमात्मा के धर्म की आराधना में निरंतर प्रयत्न करने अर्थात् भाव सहित अनुकम्पा-दान एवं सुपात्र-दान देने, शील एवं सदाचार का सेवक बनने, तृष्णा का नाश करने वाले तप में रत रहने और अपने साथ दूसरों की कल्याण-कामना करने, मैत्री आदि चार एवं अनित्यादि बारह तथा अन्य भावनाओं का सच्चे हृदय से उपासक बनने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी मानव-जन्म की सार्थकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

साधु जीवन की आराधना का सार तत्त्व


शास्त्रकार कहते हैं कि अच्छे काम में ढील मत डालो। अच्छा कार्य तो जब लग गया कि यह अच्छा है, तो उसी समय कर डालो। उसके बाद अगर एक पल भी बीतता है, तो वह आप के  लिए घाटे का बन जाता है। जिसकी दृष्टि आत्मा पर पहुँच जाती है, वह कभी भी धर्म के कार्य को आगे के लिए नहीं छोडता है।

आजकल तो क्या होता है? कोई दीक्षा लेना चाहता है तो उसको अन्तराय देने वाले तो बहुत मिल जाते हैं। बाधक बनने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन विरले ही माता-पिता ऐसे सोचने वाले होते हैं कि हमारा अहोभाग्य होगा, यदि हमारे परिवार का एक बच्चा भी दीक्षित हो जाए। अरे, सात पीढयों की पुण्यवानी एकत्र हो, तब जाकर एक आत्मा के भीतर संसार त्याग की भावनाएँ जागती है।

हमारा दृष्टिकोण अपनी आत्मा पर, अपनी चेतना पर चला जाए। आत्मा की सफाई का विचार हमें हो जाए, चेतना की सजावट के लिए हम सजग हो जाएं, तो फिर हम आत्मा को ठीक रूप से देख सकते हैं। फिर हमारे जीवन की सारी गति, जीवन की सारी क्रिया, जड की ओर नहीं चेतन की ओर होगी।

अभी तो हमारे जीवन के अधिकाँश क्षण जड की ओर गतिशील हैं। जड को सजाने का काम हम कर रहे हैं। चेतना को सजाने का कार्य बहुत कम, अल्प व्यक्तियों का हो रहा है। बहुत कम व्यक्तियों का ध्यान, आज चेतना की ओर जा रहा है। और इसी दृष्टि से शास्त्रकार बार-बार संकेत कर रहे हैं-संपिक्खए अप्पगमप्पएण।

अर्थात् साधक तुम स्वयं को देखो। दूसरों को मत देखो। जड पदार्थों को देखने का कार्य मत करो। अपनी चेतना को देखने का काम करो। यदि चेतना का रूप दृष्टि में आ गया, चेतना का अनुभूति मूलक साक्षात्कार यदि हो गया, तो फिर तुम्हारे जीवन की गति उस प्रकार की बन जाएगी, तुम्हारा जीवन उस दिशा में गतिशील हो जाएगा कि जहाँ पहुँच कर फिर लौटना न पडे।

जिन प्रवृत्तियों से आत्मा का सच्चा हित होता है, ऐसी प्रवृत्तियों में खूब-खूब जागृत रहना और आत्मा के लिए अहितकर प्रवृत्तियों में बधिर (बहरा), अंध और मूक (गूंगा) हो जाना; यही साधु जीवन की आराधना का सार है।

शास्त्र विरूद्ध, दूसरों की निंदा व निरर्थक बातें सुनने में बहरा हो जाना, पौद्गलिक रूपदर्शन, जड पदार्थ के क्षणिक सौंदर्य दर्शन व दूसरों के दोष देखने में अंधा बन जाना तथा दूसरों के अवर्णवाद बोलने में, जिन वचन विरूद्ध बोलने में मूक हो जाना, यही समस्त आराधनाओं का सार है।’-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 29 मार्च 2012

परस्त्री का त्याग और स्वस्त्री में संतोषवृत्ति


विषय सुख की वासना अच्छे-अच्छे आदमियों को भी हैवान एवं पाप से डरने वालों को भी पापासक्त बना सकती है। साधु पुरुषों के लिए तो काम-भावना के उद्देश्य से इन्द्रियों का यत्किंचित विचार भी धिक्कार और दोष रूप होता है। उन्हें तो मन, वचन, काया से सर्व प्रकार के सम्भोगों का त्याग ही करना होता है। जो सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने में अशक्त होते हैं, ऐसे गृहस्थों को पर-स्त्री मात्र का त्याग करना चाहिए तथा अपनी विवाहिता स्त्री में ही संतोष वाले बनना चाहिए।

परस्त्री से विमुखता और स्वस्त्री से संतोष यह दो बातें गृहस्थ के रूप में उत्तम ब्रह्मचारी बनाने वाली मानी गई है। सच तो यह है कि गृहस्थ को भी विषय सेवन के प्रति ग्लानि होनी चाहिए। गृहस्थ को अपनी दृष्टि ऐसी निर्मल बनानी चाहिए कि कोई भी स्त्री नजर में आए तो उसके मन में विकार उत्पन्न न हो। अपनी पत्नी में भी काम का रंग चढाने की वृत्ति नहीं होनी चाहिए। वेदोदय रूप रोग के कारण यदि सहवास के बिना असमर्थ हो जाए तो बने जिस प्रकार रोगी दवा लेता है, उस प्रकार गृहस्थ भोग को भोगे, परन्तु मन को विषय-वासना का घर न बनने दे।

इन सबके लिए अनेक मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। खराब संयोग भी आ जाए तो दृढ रहना एक बात है और खराब संयोगों में जानबूझकर जाना अलग बात है। विकार उत्पन्न करे ऐसे प्रसंग मात्र से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी हेतु ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य की नौ बाडों का वर्णन किया है। माता और बहन के साथ भी युवा पुत्र या भाई को एकान्त में नहीं रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक का इस प्रकार पतन हो, परन्तु ये भी पतन की ओर ले जाने वाले संयोग उत्पन्न कर सकते हैं।

आज तो इस विषय में अनेक अमर्यादाएं बढ रही है, इसका कारण है विषयाभिलाषा की तीव्रता। जवान लडके और लडकियां आज जिस छूट-छाट को भोगने के लिए ललचा रहे हैं, उनके कितने गंभीर परिणाम आते हैं? इसका विचार सबको करना चाहिए। विषय-वासना के कारणों ने आज विवाह संबंधी प्रश्नों को भी विकट बना दिया है। पहले तो मां-बाप समान कुल, शील आदि देखकर विवाह करते थे और विवाहित बच्चे भी संतोष से जीवन व्यतीत करते थे। आज विषय-वासनाएं बढ गई है और इसलिए पति-पत्नी में मनमेल भी नहीं रहता। प्रेम-विवाह के नाम पर भी अनेक अनाचार चल रहे हैं और इन सभी स्थितियों में तलाक की ऑंधी चल रही है। क्या आर्य देश में ऐसा होना चाहिए? ब्रह्मचर्य तो ऐसा गुण है कि उसके बिना अन्य कोई गुण शोभित ही नहीं हो सकता और न ही स्थिरता को प्राप्त कर सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 28 मार्च 2012

आत्म-कल्याण के लिए नव कर्त्तव्य


शास्त्रकारों ने, तत्त्वज्ञानी महापुरुषों ने, विश्व के जीव मात्र का भला चाहने वालों ने यह उपदेश दिया है कि संसार की नाशवंत वस्तुओं को एक न एक दिन तो छोडना ही पडेगा, यह निश्चित है, इसलिए तुम इन्हें स्वयं ही क्यों न छोड दो? यदि न छोड सको तो कम से कम अपने नव कर्त्तव्यों का पालन तो अवश्य करो ताकि शान्तिपूर्वक जी सको, शान्तिपूर्वक मर सको और बाद के भव में भी क्रमशः आत्मा का श्रेयः साध सको।

इसके लिए प्रथमतः जीवन में शान्ति प्रदाता, मृत्यु के समय आत्मा को आक्रंद से बचाने वाले एवं अंतिम समय कल्याण की उत्कट साधना में सहायक, आत्मा को पाप से दूर करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने वाले श्री वीतराग परमात्मा जो राग-द्वेष से परे हैं, संसार के समस्त बंधनों का नाश करके जो श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने संसार से पार होने का मार्ग प्रस्थापित किया है, स्वच्छ दर्पण की भाँति जो हमें आत्मदशा का ज्ञान कराते हैं, उनकी भक्ति करें, उनके द्वारा निषेधित कार्य नहीं करने का संकल्प करें, करने योग्य कार्यों को शक्ति के अनुसार करने का संकल्प करें।

दूसरा, छोटा हो या बडा, अपना हो या पराया, दुश्मन हो या मित्र सभी जीवों के प्रति करुणाभाव रखें। तीसरा, यथाशक्ति दान करें। जिस जीव को जिस समय जो आवश्यकता हो, उसे योग्य वस्तु देकर उसके दुःख का समाधान करें। भूख से पीड़ित दुःखियों को आहार, वस्त्रादि का दान करना, धर्म के मूल को पोषने के समान है।

अनंत ज्ञानियों द्वारा संसार सागर से पार होने के लिए दर्शित मार्ग की प्ररूपणा करने वाले शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना, यह चौथा कर्त्तव्य है।

पांचवां, ‘पाप पोहे समीहापूर्व में कृत और वर्तमान में हो रहे पापों को नष्ट करने के लिए पश्चाताप करें, उन्हें स्वीकार कर उनका प्रायश्चित करें, उसके लिए दण्ड स्वीकार करें और भविष्य में वे पाप नहीं करने की इच्छा रखें।

छठा, विषय-कषायरूप भव की भीति, अर्थात् संसार का डर। स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये पांच इन्द्रियों के पांच विषय हैं। क्रोध, अभिमान, प्रपंच और लोभ ये चार कषाय जो संसार के कारण हैं, उनसे भयभीत होना चाहिए।

आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रकटीकरण और उस स्वरूप को प्रकट करने का जो मार्ग है, उसे मुक्ति मार्ग कहते हैं, उस मार्ग का अनुराग सातवां कर्त्तव्य है। संसार के प्रति विराग भाव प्रकटे, ऐसे सत्पुरुषों का संसर्ग करना आठवां कर्त्तव्य है। और नवां, विषयों से विरक्त बनने का प्रयास करें। विषय-विरागी भले ही संसार में रहता हो, गृहत्याग न किया हो, फिर भी वह अनेक पापों से बच जाता है, दूसरों को भी बचा सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 27 मार्च 2012

लोभी व्यक्ति परिताप सहता है!


जो लोभ वाला व्यक्ति है, आकांक्षा वाला व्यक्ति है, जिसके मन में अनेकों इच्छाएँ हैं, वह रात दिन परिताप को सहन करता रहता है। अनेकों संकल्प-विकल्प उसके मन में उठते रहते हैं। उसको अपने लोभ में, अपनी तृष्णा में न काल का ध्यान रहता है, न अकाल का ही ध्यान रहता है। ऐसे व्यक्ति को समय-असमय का कोई ध्यान नहीं रहता है। उसके लिए तो फिर 4 बजे भी कहीं उठकर जाना है तो जाना है और 1 बजे उठकर जाना है तो जाना है। शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति संयोगार्थी होता है। अपने जीवन के लिए पारिवारिक जनों के लिए, बाह्य यश-प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए, वह विविध प्रकार के संयोगों को जुटाता है।

उसके मन में बस एक ही आकांक्षा होती है कि मैं कैसे अधिक से अधिक यश-प्रतिष्ठा अर्जित करूँ, कैसे देश में प्रतिष्ठित व्यक्ति बनूँ? कैसे मेरी समाज में पूछ-परख बढ जाए? ऐसी आकांक्षाएँ रखने वाला व्यक्ति फिर अर्थ का लोभी हो जाता है। रात-दिन उसका ध्यान अर्थ के प्रति लगा रहता है। उसका यही चिन्तन चलता रहता है कि कैसे मैं अधिक से अधिक धन एकत्र करूँ? भौतिक पदार्थों के प्रति ही उसका ध्यान लगा रहता है। उस अर्थ के लोभी व्यक्ति को यदि धन नहीं मिलता है तो फिर वह लूट-खसोट का काम भी करने लगता है। क्या करता है? एक दूसरे का गला काटने लगता है। ये माया के चक्कर, ये लोभ किस दृष्टि के व्यक्तियों में जागृत होते हैं, जिनका आत्मा पर ध्यान नहीं होता है। केवल जड पदार्थों के प्रति ही जिनका ध्यान लगा होता है। ऐसा व्यक्ति फिर बिना विचार किए ही कार्य करने वाला बन जाता है। फिर वह यह चिन्तन करना भी भूल जाता है कि मैं किसलिए धन को इकट्ठा कर रहा हूँ? किसके लिए धन-सम्पत्ति जुटा रहा हूँ?

जो संयम-साधना के प्रति सक्रिय होता है, उसकी जीवन-दृष्टि कुछ और ही होती है। इसके विपरीत जो लोभ के प्रति आसक्त बना होता है, उसकी जीवन-दृष्टि कुछ और ही होती है। उसके जीवन की गति ही विपरीत होती है। हम अपने अज्ञान के आवरणों को तोडें। सम्यकज्ञान का बोध हमें हो। तत्वातत्व का विवेक हमारे भीतर जागे। जन्म-मरण से बचने का प्रयास करें। मुक्ति को पाने का प्रयास हमारा बने। अन्यथा हजारों बार हम उच्चारण कर लें कि हमारा जन्म-मरण हो रहा है, हम हजारों बार जन्म-मरण कर रहे हैं। तो केवल उच्चारण करने मात्र से कुछ नहीं होता है। हमारे अन्तरंग में यह बात सम्यक रूप से बैठनी चाहिए तो जीवन की दिशा बदल सकती है। ऐसे हमारे जीवन की दिशा अगर बदलेगी, तो हमारा आत्म-कल्याण होगा।-आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 26 मार्च 2012

जो जितना बडा परिग्रही, वो उतना ही बडा चोर


धन का लोभी व्यक्ति, लूट-खसोट करता है। एक दूसरे को लूटता है। परिग्रह में आसक्त होता है। फिर वह परिग्रही चित्त वाला व्यक्ति, आसक्ति वाला व्यक्ति, छः काय-जीवों की विराधना करता है। हिंसादि में दौडता है। वह, यह सब कुछ किसलिए करता है? वह व्यक्ति ये सब कुछ पाप करता हुआ सोचता है कि इससे मेरा मनोबल बढ जाएगा। मेरा आत्मबल बढ जाएगा और मेरे पास का संग्रह-परिग्रह अधिक हो जाएगा। तो फिर मेरा मित्र-बल भी बढ जाएगा। मेरा देव-बल बढ जाएगा। मेरा राजबल बढ जाएगा और गिनाते-गिनाते वह पाप कार्य में आसक्त व्यक्ति कहता है, सोचता है कि मेरा चोर-बल भी बढ जाएगा। जो जितना ज्यादा परिग्रही होता है, उतना ही बडा चोर हेाता है। वह टेक्स की चोरी करता है, अब वह व्यक्ति धन्धे भी तो कैसे करता है? चोरी के धन्धे, तस्करी के धन्धे करता है। कालाबाजारी, ब्लेकमेल के धन्धे, (रिश्वतखोरी, भ्रष्ट कर्म) तो वह करता ही है और यह धन्धा सरकार से छुप-छुप कर किया जाता है, तो यह भी तो अपने आप में एक प्रकार की चोरी ही है। अब यह बात अलग है कि वह थोडा सभ्य चोर है। वे चोर जो चोरी करते हैं, सेठों के घर में धन चुराते हैं, वे थोडे असभ्य चोर होते हैं, गांठ खोलकर चोरी करते हैं। लेकिन ये चोर थोडी सभ्यता से चोरी करते हैं।

इस दुनिया में चारों ओर चोर ही चोर हैं। सारी दुनिया ही चोरों से भरी हुई है। परिग्रही व्यक्ति सत्ता वाला बन जाएगा, आसक्ति वाला बन जाएगा, तो वह बडा चोर बन जाएगा। और जब उसकी सत्ता बढ जाती है, तो फिर वह व्यक्ति सोचता है कि मेरा अतिथि-बल भी बढ जाएगा? अतिथि बल कैसे बढेगा? वह परिग्रही व्यक्ति समाज में बडा सम्मानी हो जाएगा, उसका मान-सम्मान बढ जाएगा। समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ जाएगी। फिर उसे लोग अपने यहाँ आमंत्रित करेंगे और उसके यहाँ भी आने-जाने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ जाएगी। फिर वह जहाँ भी जाएगा उसका बढ़िया से बढ़िया आतिथ्य किया जाएगा। क्योंकि उसके पास धन-सम्पत्ति बढ गई है और आज समाज में किसकी पूछ है? पैसे ही की तो पूछ होती है। वह परिग्रही व्यक्ति चिन्तन करता है कि मैं भी लोगों का आतिथ्य-सत्कार करूँगा तो मेरी भी पूछ-परख बढ जाएगी। फिर मेरा श्रमण बल भी बढ जाएगा। साधु-सन्तों में भी मेरी पूछ-परख बढ जाएगी। साधु-सन्त मुझे ही पूछेंगे कि ओहो, सेठ साहब, सेठ साहब! शास्त्रकार कहते हैं कि वह व्यक्ति इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ विविध प्रकार के हिंसादि कार्यों में रूचि लेने लगता है, अधिकाधिक आसक्त होता हुआ पाप कार्य की ओर गतिशील होता है और नरक का मेहमान बनता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 25 मार्च 2012

सरकार की दुष्ट मनोवृत्ति


सरकार यानी नेता और अफसर! इन्हें देश सेवा से कोई सरोकार नहीं, ये कैसे अपनी कुर्सी पर जमे रहें और कैसे अधिकतम धन-सम्पत्ति बटोर सकें, इसी उधेडबुन में ये लगे रहते हैं। सेवा निवृत्ति की आयु पहले 55 साल थी। कर्मचारी रिटायर होता, नौजवान को मौका मिलता। कर्मचारी चूंकि मरते दम तक कुर्सी छोडना नहीं चाहता, इसलिए चालाकी से उसने अपनी सेवा निवृत्ति की आयु बढवा ली। 55 से 57, फिर 58 और फिर 60 साल; अब वह 62 और 65 करवाने की जोडतोड में लगा है। इस बीच मर जाएंगे तो बच्चे को अनुकम्पा नौकरी मिल जाएगी, कब्जा बना रहेगा। अपनी वेतन वृद्धियां भी नेता और कर्मचारी आराम से करवा लेते हैं, क्योंकि मंहगाई सिर्फ उन्हीं को सताती है।

नई भर्तियां रोक दी गईं। कर्मचारी कुछ मर-खप गए तो कुछ को रिटायर होना ही पडा, लेकिन नेताओं और कर्मचारियों ने सरकार को इतना दिवालिया कर दिया कि पद रिक्त होने के बावजूद जहां-जहां और जितना नई भर्तियों को टाल सकती थी टालती रही। अब जब सरकारी काम और सरकार लडखडाने लगे तो इन्होंने शोषण का नया फण्डा तैयार किया, जिसने दुष्टता की, निर्दयता की शोषण की सारी हदें लांघ दी है। पिछले 8-10 वर्षों में सरकार ने गैर सरकारी संगठनों के पेटर्न पर संस्थाएं बनाकर काम शुरू किया। जैसे नाको, एड्स कंट्रोल सोसायटी, एनआरएचएम, आदि-आदि। इसमें ऊपर के स्तर पर कुछ सरकारी अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर बैठ गए और नीचे के स्तर पर संविदा के आधार पर मामूली वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं। अफसर मजे कर रहे हैं, नेताओं को कमीशन देकर घोटाले भी कर रहे हैं, विदेश यात्राएं भी कर रहे हैं और उनकी वेतन वृद्धियां तो रूटीन में हो ही रही हैं। नीचे संविदाकर्मियों की तरफ देखने की जरूरत ही नहीं, चां-चूं करेंगे तो नौकरी से निकाल देंगे। कैसी है यह दुष्ट मनोवृत्ति?

क्या सरकार ने असंगठित संविदाकर्मिर्यों के लिए भी कभी कुछ सोचा है? जिस योग्यता और काम के आधार पर सरकारी कर्मचारी को 40 हजार से एक लाख रुपये मासिक वेतन मिल रहा है, उसी योग्यता और काम के आधार पर एक संविदा कर्मी को 6,500 से 10,000 रुपये मासिक मिल रहा है। काम संविदाकर्मी ज्यादा करता है और स्थाई कर्मचारी हरामी ज्यादा करता है। फिर भी वेतन वृद्धियां और मंहगाई भत्ता स्थाई कर्मचारी का बढता है, संविदाकर्मी रोता है। कैसा शोषण और विडम्बना है? स्थाई कर्मचारी रिश्वत और घेटाले में भी लिप्त होता है, संविदाकर्मी के परिवार को दो वक्त का भोजन और उसके बच्चे को अच्छे स्कूल में शिक्षण नसीब नहीं होता है। क्या यह संविधान और मानवीय गरिमा के अनुरूप है? समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त कहां है? क्या सरकार की यह नीति अराजकता को जन्म नहीं देगी?

जरा हिसाब तो लगाएं कि 8-10 साल पहले एक स्थाई कर्मचारी को कितना वेतन मिलता था और आज कितना मिलता है? वहीं एक संविदाकर्मी को उस समय कितना वेतन मिलता था और आज कितना मिलता है? आप चाहे उसे स्थाई न करो, जब तक अच्छा और ईमानदारी से काम करे तब तक ही रखो, लेकिन रोटी तो पूरी दो, इतना पैसा तो दो कि वह भी अपने बच्चे को अच्छा पढा सके।