शास्त्रकारों ने, तत्त्वज्ञानी
महापुरुषों ने, विश्व के जीव मात्र का भला चाहने वालों ने यह उपदेश
दिया है कि संसार की नाशवंत वस्तुओं को एक न एक दिन तो छोडना ही पडेगा, यह निश्चित है, इसलिए
तुम इन्हें स्वयं ही क्यों न छोड दो?
यदि न छोड सको तो कम से
कम अपने नव कर्त्तव्यों का पालन तो अवश्य करो ताकि शान्तिपूर्वक जी सको, शान्तिपूर्वक मर सको और बाद के भव में भी क्रमशः
आत्मा का श्रेयः साध सको।
इसके लिए प्रथमतः जीवन में शान्ति प्रदाता, मृत्यु के समय आत्मा को आक्रंद से बचाने वाले एवं
अंतिम समय कल्याण की उत्कट साधना में सहायक, आत्मा
को पाप से दूर करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने वाले श्री वीतराग
परमात्मा जो राग-द्वेष से परे हैं,
संसार के समस्त बंधनों
का नाश करके जो श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने
संसार से पार होने का मार्ग प्रस्थापित किया है, स्वच्छ
दर्पण की भाँति जो हमें आत्मदशा का ज्ञान कराते हैं, उनकी
भक्ति करें, उनके द्वारा निषेधित कार्य नहीं करने का संकल्प करें, करने योग्य कार्यों को शक्ति के अनुसार करने का
संकल्प करें।
दूसरा,
छोटा हो या बडा, अपना हो या पराया, दुश्मन
हो या मित्र सभी जीवों के प्रति करुणाभाव रखें। तीसरा, यथाशक्ति
दान करें। जिस जीव को जिस समय जो आवश्यकता हो, उसे
योग्य वस्तु देकर उसके दुःख का समाधान करें। भूख से पीड़ित दुःखियों को आहार, वस्त्रादि का दान करना, धर्म
के मूल को पोषने के समान है।
अनंत ज्ञानियों द्वारा संसार सागर से पार होने के लिए
दर्शित मार्ग की प्ररूपणा करने वाले शास्त्रों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना, यह चौथा कर्त्तव्य है।
पांचवां,
‘पाप पोहे समीहा’ पूर्व में कृत और वर्तमान में हो रहे पापों को नष्ट
करने के लिए पश्चाताप करें,
उन्हें स्वीकार कर उनका
प्रायश्चित करें,
उसके लिए दण्ड स्वीकार
करें और भविष्य में वे पाप नहीं करने की इच्छा रखें।
छठा,
विषय-कषायरूप भव की
भीति, अर्थात् संसार का डर। स्पर्श, रस,
गंध, रूप और शब्द ये पांच इन्द्रियों के पांच विषय हैं।
क्रोध, अभिमान,
प्रपंच और लोभ ये चार
कषाय जो संसार के कारण हैं,
उनसे भयभीत होना चाहिए।
आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रकटीकरण और उस स्वरूप को
प्रकट करने का जो मार्ग है,
उसे मुक्ति मार्ग कहते
हैं, उस मार्ग का अनुराग सातवां कर्त्तव्य है। संसार के
प्रति विराग भाव प्रकटे,
ऐसे सत्पुरुषों का
संसर्ग करना आठवां कर्त्तव्य है। और नवां, विषयों
से विरक्त बनने का प्रयास करें। विषय-विरागी भले ही संसार में रहता हो, गृहत्याग न किया हो, फिर
भी वह अनेक पापों से बच जाता है,
दूसरों को भी बचा सकता
है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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