विषय सुख की वासना
अच्छे-अच्छे आदमियों को भी हैवान एवं पाप से डरने वालों को भी पापासक्त बना सकती
है। साधु पुरुषों के लिए तो काम-भावना के उद्देश्य से इन्द्रियों का यत्किंचित
विचार भी धिक्कार और दोष रूप होता है। उन्हें तो मन, वचन, काया से सर्व प्रकार के
सम्भोगों का त्याग ही करना होता है। जो सर्वथा ब्रह्मचर्य पालन करने में अशक्त
होते हैं,
ऐसे
गृहस्थों को पर-स्त्री मात्र का त्याग करना चाहिए तथा अपनी विवाहिता स्त्री में ही
संतोष वाले बनना चाहिए।
परस्त्री से विमुखता और
स्वस्त्री से संतोष यह दो बातें गृहस्थ के रूप में उत्तम ब्रह्मचारी बनाने वाली
मानी गई है। सच तो यह है कि गृहस्थ को भी विषय सेवन के प्रति ग्लानि होनी चाहिए।
गृहस्थ को अपनी दृष्टि ऐसी निर्मल बनानी चाहिए कि कोई भी स्त्री नजर में आए तो
उसके मन में विकार उत्पन्न न हो। अपनी पत्नी में भी काम का रंग चढाने की वृत्ति
नहीं होनी चाहिए। वेदोदय रूप रोग के कारण यदि सहवास के बिना असमर्थ हो जाए तो बने
जिस प्रकार रोगी दवा लेता है, उस प्रकार गृहस्थ भोग को भोगे, परन्तु मन को
विषय-वासना का घर न बनने दे।
इन सबके लिए अनेक
मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। खराब संयोग भी आ जाए तो दृढ रहना एक बात है और खराब
संयोगों में जानबूझकर जाना अलग बात है। विकार उत्पन्न करे ऐसे प्रसंग मात्र से दूर
रहने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी हेतु ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मचर्य की नौ बाडों
का वर्णन किया है। माता और बहन के साथ भी युवा पुत्र या भाई को एकान्त में नहीं
रहना चाहिए। यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक का इस प्रकार पतन हो, परन्तु ये भी पतन की ओर
ले जाने वाले संयोग उत्पन्न कर सकते हैं।
आज तो इस विषय में अनेक
अमर्यादाएं बढ रही है, इसका कारण है विषयाभिलाषा की तीव्रता। जवान लडके
और लडकियां आज जिस छूट-छाट को भोगने के लिए ललचा रहे हैं, उनके कितने गंभीर
परिणाम आते हैं? इसका विचार सबको करना चाहिए। विषय-वासना के
कारणों ने आज विवाह संबंधी प्रश्नों को भी विकट बना दिया है। पहले तो मां-बाप समान
कुल,
शील
आदि देखकर विवाह करते थे और विवाहित बच्चे भी संतोष से जीवन व्यतीत करते थे। आज
विषय-वासनाएं बढ गई है और इसलिए पति-पत्नी में मनमेल भी नहीं रहता। प्रेम-विवाह के
नाम पर भी अनेक अनाचार चल रहे हैं और इन सभी स्थितियों में तलाक की ऑंधी चल रही
है। क्या आर्य देश में ऐसा होना चाहिए? ब्रह्मचर्य तो ऐसा गुण है कि उसके बिना अन्य कोई
गुण शोभित ही नहीं हो सकता और न ही स्थिरता को प्राप्त कर सकता है।-आचार्य श्री विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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