धन का लोभी व्यक्ति, लूट-खसोट करता है। एक
दूसरे को लूटता है। परिग्रह में आसक्त होता है। फिर वह परिग्रही चित्त वाला
व्यक्ति,
आसक्ति
वाला व्यक्ति, छः काय-जीवों की विराधना करता है। हिंसादि में दौडता है। वह, यह सब कुछ किसलिए करता
है?
वह
व्यक्ति ये सब कुछ पाप करता हुआ सोचता है कि इससे मेरा मनोबल बढ जाएगा। मेरा
आत्मबल बढ जाएगा और मेरे पास का संग्रह-परिग्रह अधिक हो जाएगा। तो फिर मेरा
मित्र-बल भी बढ जाएगा। मेरा देव-बल बढ जाएगा। मेरा राजबल बढ जाएगा और
गिनाते-गिनाते वह पाप कार्य में आसक्त व्यक्ति कहता है, सोचता है कि मेरा
चोर-बल भी बढ जाएगा। जो जितना ज्यादा परिग्रही होता है, उतना ही बडा चोर हेाता
है। वह टेक्स की चोरी करता है, अब वह व्यक्ति धन्धे भी तो कैसे करता है? चोरी के धन्धे, तस्करी के धन्धे करता
है। कालाबाजारी, ब्लेकमेल के धन्धे, (रिश्वतखोरी, भ्रष्ट कर्म) तो वह
करता ही है और यह धन्धा सरकार से छुप-छुप कर किया जाता है, तो यह भी तो अपने आप
में एक प्रकार की चोरी ही है। अब यह बात अलग है कि वह थोडा सभ्य चोर है। वे चोर जो
चोरी करते हैं,
सेठों
के घर में धन चुराते हैं, वे थोडे असभ्य चोर होते हैं, गांठ खोलकर चोरी करते
हैं। लेकिन ये चोर थोडी सभ्यता से चोरी करते हैं।
इस दुनिया में चारों ओर
चोर ही चोर हैं। सारी दुनिया ही चोरों से भरी हुई है। परिग्रही व्यक्ति सत्ता वाला
बन जाएगा,
आसक्ति
वाला बन जाएगा,
तो
वह बडा चोर बन जाएगा। और जब उसकी सत्ता बढ जाती है, तो फिर वह व्यक्ति
सोचता है कि मेरा अतिथि-बल भी बढ जाएगा? अतिथि बल कैसे बढेगा? वह परिग्रही व्यक्ति
समाज में बडा सम्मानी हो जाएगा, उसका मान-सम्मान बढ जाएगा। समाज में उसकी
प्रतिष्ठा बढ जाएगी। फिर उसे लोग अपने यहाँ आमंत्रित करेंगे और उसके यहाँ भी
आने-जाने वाले व्यक्तियों की संख्या बढ जाएगी। फिर वह जहाँ भी जाएगा उसका बढ़िया से
बढ़िया आतिथ्य किया जाएगा। क्योंकि उसके पास धन-सम्पत्ति बढ गई है और आज समाज में
किसकी पूछ है?
पैसे
ही की तो पूछ होती है। वह परिग्रही व्यक्ति चिन्तन करता है कि मैं भी लोगों का
आतिथ्य-सत्कार करूँगा तो मेरी भी पूछ-परख बढ जाएगी। फिर मेरा श्रमण बल भी बढ
जाएगा। साधु-सन्तों में भी मेरी पूछ-परख बढ जाएगी। साधु-सन्त मुझे ही पूछेंगे कि
ओहो,
सेठ
साहब,
सेठ
साहब! शास्त्रकार कहते हैं कि वह व्यक्ति इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ विविध
प्रकार के हिंसादि कार्यों में रूचि लेने लगता है, अधिकाधिक आसक्त होता
हुआ पाप कार्य की ओर गतिशील होता है और नरक का मेहमान बनता है।-आचार्य श्री विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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