यहां न कुछ तेरा है,
न मेरा है। न ही यह धन-सम्पत्ति, यह
भौतिकता की चकाचौंध या नाते-रिश्तेदार अंतिम समय में साथ आने वाले हैं, फिर
अहंकार/अभिमान किस पर?
क्यों हम सिर्फ बाह्य वस्तुओं और व्यवस्थाओं के प्रति ही
सजग हैं? आत्मा के प्रति हम सजग क्यों नहीं? हम भौतिक संसाधनों को जुटाने
में और अधिकाधिक अर्थोपार्जन की दौड में इतने अधिक लिप्त हो गए हैं कि प्रायः
चौबीसों घण्टे हमारी क्रियाएं उन्हीं पर केन्द्रित रहती हैं और हम कल का काम भी आज
ही निबटा लेना चाहते हैं,
लेकिन धर्म-साधना अथवा परोपकार का काम कल पर छोडते हैं और
वह कल कभी नहीं आता,
‘काल’
ही आता है। तब हमारा यह जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमारी
आत्मा अनादिकाल से सोई हुई है। मिथ्यात्व मोह और अज्ञान निद्रा का आवरण हमारी
आत्मा पर छाया हुआ है। जब हमारी आत्मा में जागृति आ जाएगी, तब
हमें अपने अंतरंग शत्रु दिखाई देने लगेंगे कि इन्होंने हमारे भीतर की आत्मा को
कैसे दूषित कर रखा है? -सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें