यह संसार क्षणभंगुर है,
नाशवान है। मनोहर दिखाई देने वाला प्रत्येक पदार्थ प्रति
क्षण विनाश की प्रक्रिया से गुजर रहा है। जो कल था, वह आज नहीं है और जो
आज है, कल नहीं होगा। संसार प्रतिक्षण नाशवान और परिवर्तनशील है। फिर हम क्यों बाह्य
पदार्थों, जड तत्त्वों में भटक रहे हैं? क्यों हम नश्वरता के पीछे बेतहाशा दौडे जा
रहे हैं, पगला रहे हैं?
हम आत्म-स्वरूप को समझकर शाश्वत सुख की ओर क्यों न बढें? जहां
जीना थोडा, जरूरतों का पार नहीं,
फिर भी सुख का नामोनिशान नहीं; ऐसा
है संसार और जहां जीना सदा,
जरूरतों का नाम नहीं, फिर भी सुख का शुमार नहीं; वह
है मोक्ष! फिर भी हमारी सोच और गति संसार से हटकर मोक्ष की ओर नहीं होती, यह
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है?
हम अनन्त काल से संसार की क्षणभंगुरता को समझे बिना परभाव
में रमण करते चले आ रहे हैं, यही हमारे जन्म-मरण और संसार परिभ्रमण का
कारण है, यही दुःख-शोक-विषाद का कारण है। 24 घण्टे हम परभाव में व्यस्त
रहते हैं, एक क्षण के लिए भी यह विचार नहीं करते कि हम आत्मा के लिए क्या कर रहे हैं? जो
भी आत्मा से ‘पर’ है, वह नाशवान है और संसार के नाशवान पदार्थ ही सब झगडों की जड़ हैं; जब
तक यह चिन्तन नहीं बनेगा,
संसार से आसक्ति खत्म नहीं होगी, हम
स्व-बोध को, आत्म-बोध को प्राप्त नहीं कर सकेंगे और उसके बिना आत्मिक आनंद, परमसुख
की उपलब्धि असम्भव है।-सूरिरामचन्द्र
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