संयम जीवन बहुत कठोर है। जो उस पर चल पाता है, वह महान बन जाता है, लेकिन
जो व्यक्ति संयमी जीवन का वेश पहिनने के बाद भी पालन नहीं कर पाता है, वह
उससे नीचे गिरता है तो उसका समस्त अस्तित्व चकनाचूर हो जाता है। कहा गया है-
साधु जीवन कठिन है, ऊँचा पेड खजूर।
चढे तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर।।
व्यक्ति क्षणिक मोह के वशीभूत होकर पथ से हट जाता है, पथभ्रष्ट
बन जाता है और अपने तुच्छ स्वार्थों में अंधा होकर सुसाधुओं को आघात पहुंचाता है, छद्मवेश
में धर्म को आघात पहुंचाता है, धर्मतीर्थ को आघात पहुंचाता है और अपना
संसार सजाता है। श्री अरिहंत परमात्मा ने मोक्ष पाने हेतु ही धर्मतीर्थ की
संस्थापना की है। इसी धर्मतीर्थ का उपयोग संसार सजाने (संसार के सुख पाने) के लिए
करना परमात्मा का घोर अपराध है। हमारी साधना ऐसी होनी चाहिए कि हमें बाहर के कितने
ही निमित्त मिलें,
लेकिन हमारे में विकार उत्पन्न न हो, हम
अपने संयम की मर्यादाओं से जरा भी विचलित न हों।-सूरिरामचन्द्र
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