पूर्व
के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य
देश,
आर्य संस्कृति और अच्छा कुल मिला, धर्म
गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव मिला। लेकिन अब इस जीवन में हम क्या कर रहे
हैं?
आप पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट
कर रहे हो ! पुराना पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक
संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे-
कीडे मकोडे,
सांप-बिच्छू? अरे कुछ तो समझो !
बहुत श्रम,
त्याग, तपस्या से अर्जित पुरानी पुण्य की पूँजी खा-पीकर
मौज-शौक में उडा दोगे, फिर क्या करोगे?
आज
हमारा बहुत बडा पुण्योदय है कि हमें धर्म सामग्री से सम्पन्न मनुष्य भव मिला है, जो
मनुष्य भव दुर्लभ में दुर्लभ माना जाता है, वह किसलिए, क्या आपको पता है? सुख की दृष्टि से? नहीं....। यदि सुख की दृष्टि से यहां विचार करना
हो तो देवलोक में बहुत ऋद्धियां है। परन्तु शास्त्रकारों ने देव जन्म को दुर्लभ न
कहकर मनुष्य जन्म को ही दुर्लभ कहा है। क्योंकि मनुष्य जन्म से ही मोक्ष में जाया
जा सकता है और भव चौरासी में बार-बार के जन्म-मरण को रोका जा सकता है। अक्षय सुख
और आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। इस मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र
रूप रत्नत्रयी की आराधना करनी होती है। इस रत्नत्रयी की आराधना के लिए साधु धर्म
प्राप्त करना पडता है। क्योंकि साधु धर्म प्राप्त किए बिना अपवाद को छोड़ दें तो कोई
भी मुक्ति में नहीं जा सकता।
आर्य
देश,
आर्य संस्कृति, वीतरागी देव, केवलज्ञानी अरिहंत भगवंतों द्वारा बताया गया धर्म
श्रवण कराने वाले गुरु के संयोग वाले जैन कुल में मिला यह मनुष्य जन्म स्वर्णपात्र
के समान है,
जिसमें रत्नत्रयी का सेवन कर अक्षय सुख व आनंद
प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन हम कर क्या रहे हैं? रत्नत्रयी
का सेवन या भोग-कर्म का सेवन?
सभी
पात्रों में स्वर्णपात्र उत्तमोत्तम कोटि का गिना जाता है और सभी पेय पदार्थों में
मदिरा,
अधम से अधम गिनी जाती है। उत्तम कोटि के आर्यों में
भी मदिरापान महापाप गिना जाता था। अधिकांशतः कोई भी आर्य मदिरापान करता नहीं और
करता हो तो लज्जित हुए बिना नहीं रहता। मदिरापान को जो महापाप गिनता हो और
मदिरापान करता हो तो भी उसे जो अत्यंत लज्जाजनक समझता हो, वह
व्यक्ति सुरापान के लिए स्वर्णपात्र जैसे उत्तम कोटि के पात्र का उपयोग कैसे करेगा? अधम
वस्तु को उत्तम पात्र में कैसे भरा जाए? रत्नत्रयी के भाजन रूप मनुष्य जन्म में भोग-कर्म, स्वर्ण
के पात्र में मदिरा को स्थान देने समान है।
-आचार्य श्री विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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