शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

संसार का सुख, दुःख का कारण है


संसार का कोई भी सुख, यदि हम सावधान न हों तो दुःख का ही कारण है। अतः इस दुःख से छूटने के लिए संसार का सुख नहीं पाना है, अपितु मुक्ति प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए’, ऐसा जब जीव की बुद्धि में बैठ जाए, तभी उसे सचमुच धर्म की आवश्यकता महसूस होती है। इसके साथ ही शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण शुरू हो जाता है, क्रमशः असंख्य गुण निर्जरा होने की स्थिति पैदा होती है और इसमें बढते-बढते जीव सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त कर लेता है।

वैसे तो सम्यग्दर्शन आत्मा का तथाविध परिणाम स्वरूप है, परन्तु उससे उत्पन्न प्रभाव की अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन अर्थात् तत्त्वभूत पदार्थों का जैसा स्वरूप श्री जिनेश्वर देव ने कहा है, वैसा स्वरूप जीव को रुचिकर लगना। संसार बुरा है, इससे छूटना चाहिए’, ऐसा अनुभव हुए बिना शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण नहीं आ सकता। जीव को संसार के सुख के प्रति अरुचि होनी चाहिए। इस सुख में मेरा निस्तार करने की शक्ति नहीं है’, ऐसा अनुभव होना चाहिए। इस सुख में लीन होने से निस्तार तो हो ही नहीं सकता, अपितु संसार में अधिक से अधिक फँस जाना पडता है, ऐसा जीव को अनुभव होना चाहिए।

हमें यह विचार करना चाहिए कि हमें संसार का सुख कैसा लगता है? संसार का कोई भी सुख पुण्य से मिलता है। जीव को स्वयं के पुण्योदय बिना संसार का सुख नहीं मिलता है। अभी जीव की जो स्थिति है, उसमें यह सुख मीठा लग सकता है। इससे काम चलाऊ शांति का अनुभव हो, ऐसा भी हो सकता है। मान-पान आदि मिले, यह भी सुख है न? यह रुचिकर लगता है न? परन्तु उसी समय हृदय में यह अनुभव होना चाहिए कि यह ठीक नहीं है। इससे मेरा निस्तार नहीं है। इसे मुझे सहायक बनाना चाहिए। इसमें मुझे स्वयं को नहीं भुला देना चाहिए।

प्रतिदिन धर्म करने वालों को तो अपनी आत्मा से खास तौर पर पूछना चाहिए कि तुझे यह सुख कैसा लगता है? प्राप्त करने योग्य या छोडने योग्य? तुझे चाहिए संसार का सुख या मुक्ति का सुख? संसार के सुख की जो आवश्यकता लगती है, वह कमजोरी है, ऐसा लगता है? ऐसा कुछ आप विचार करते हैं क्या? ऐसा विचार करें तो शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण आ सकता है।

शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण को लाने का परिणाम है और अपूर्वकरण के आते ही ग्रंथि-भेद होता है और इसके पश्चात अनिवृत्तिकरण नाम का परिणाम पैदा होता है, जो परिणाम सम्यक्त्व को प्रकट किए बिना नहीं रहता। इसके बाद उसे शुद्ध देव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म की उपासना के अतिरिक्त कोई भी उपासना वास्तविक रूप में करने योग्य नहीं लगती। फिर तो मोक्ष ही उसकी मंजिल है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें