सोमवार, 19 नवंबर 2012

धर्म के प्रति वास्तविक रुचि कितनी?


धर्म के प्रति वास्तविक रुचि कितनी?

सचमुच यदि धर्म को पाना हो और धर्म करना हो तो सबसे पहले संसार के सुख के प्रति वक्रदृष्टि करनी होगी। संसार के सुख से जब तक दृष्टि हटती नहीं, तब तक धर्म, धर्म के रूप में रुचिकर नहीं लगता और जब तक धर्म, धर्मरूप में रुचिकर नहीं लगता, तब तक धर्म, धर्म के रूप में करने का दिल नहीं होता।

हम अपने आपको पूछें कि हम पूजा करते हैं, सामायिक करते हैं, पौषध करते हैं, तप करते हैं, शील पालते हैं और जो कोई धर्म-क्रिया करते हैं, वह किसलिए करते हैं? आपको धर्म अच्छा लगता है? प्रतिदिन अधिक से अधिक धर्म करने का मन होता है? अधिक-अधिक धर्म करते हुए साधुपन को पाने की इच्छा होती है? आप जितनी धर्मक्रिया करते हैं, वह आपको कम-कम लगती है या हम बहुत करते हैं, ऐसा आपको लगता है? ‘इस संसार में जीव के लिए एकमात्र जिनकथित धर्म ही शरणभूत है’, ऐसी जिसे प्रतीति होती है, वह अपने द्वारा किए जा रहे धर्म से संतुष्ट होता है?

आज धर्मक्रिया करने वालों में अधिकांशतः या तो धर्म के विषय में संतोषी हैं या फिर धन के विषय में असंतोषी हैं। थोडा और वह भी पंगु धर्म करते हैं और ऐसा मानते हैं कि उन्होंने बहुत धर्म कर लिया! किन्तु पैसा जैसे-जैसे बढता जाता है, वैसे-वैसे असंतोष बढता जाता है। लखपति व्यक्ति धर्म के विषय में संतोष कर लेता है, लेकिन धन के विषय में एक दो लाख हो जाए, पांच लाख हो जाए, दस लाख हो जाए तो भी संतोष नहीं करता। इस प्रकार धन का असंतोष हृदय में तो बैठा हुआ ही है, परन्तु वह खटकता भी है क्या?

धन के लोभी को धन के विषय में जैसा अनुभव होता है, वैसा अनुभव धर्मरुचि वाले को धर्म के विषय में होता है। वह चाहे जितना धर्म करे तो भी उसे कम ही लगता है। उसे यही विचार आता है कि अभी तो मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। धर्म तो वास्तव में साधु महाराज ही कर पाते हैं।इसलिए उसे साधु बनने का मन हुआ करता है। कब साधुपना लूं?’ ऐसा वह सोचता ही रहता है।

आपको धर्म में संतोष है या असंतोष? ‘मुझे साधु बनना है,’ ऐसा आपको प्रतिदिन विचार आता है? आपकी धर्मरुचि का माप तो निकालिए! आपकी शक्ति और सामग्री के प्रमाण में आप धर्म करते हैं, ऐसा आप कह सकते हैं क्या? नहीं। आप शक्ति और सामग्री के प्रमाण में धर्म नहीं करते, इस बात की पीडा आपको प्रतिदिन होती है? धर्म के विषय में आपको प्रतिदिन नया-नया उल्लास प्राप्त होता है? ‘मैं इस प्रकार धर्म करता हूं, उस प्रकार धर्म करता हूं’, ऐसा विचार होता है क्या? जैसे व्यवहार के विषय में होता है कि हम ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं, वैसा धर्म के विषय में होता है क्या? इन सब सवालों पर मंथन-अवलोकन तो करें! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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