रविवार, 31 अगस्त 2014

आत्म-कल्याण ही जीवन का ध्येय

आत्म-कल्याण ही जीवन का ध्येय
श्री जैनशासन का कथा-विभाग आत्म-कल्याण की प्रेरणा के लिए ही है। लिखने वाले का, पढने वाले का और सुनने वाले का आत्म-कल्याण हो, इसी उद्देश्य से जीवन वृतान्त आदि से संबंधित कथाएं लिखी गई हैं। यह उद्देश्य कल्याण के अर्थी उपदेष्टा और श्रोता दोनों की आँखों के समक्ष सदैव रहना चाहिए।
आत्म-कल्याण यही जीवन का ध्येय और श्री जैनशासन इस ध्येय को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।इतना निश्चय यदि निराबाध रूप से यथार्थ स्वरूप में हो जाए, तो वस्तु को सही ढंग से पहचानना और उसका जीवन में उपयोग होना, यह सहज हो सकता है। आज जीवन के ध्येय का ठिकाना नहीं है। श्रद्धासम्पन्न समझदार आत्माएं बहुत ही कम और परभाव में मुग्ध आत्माएं बहुसंख्यक, ऐसी स्थिति तो अनंतकाल से चली आ रही है और अनंतकाल पर्यन्त रहने ही वाली है। इसलिए अपनी आत्मा को कौनसी श्रेणी में रखना है, यही खास विचारणीय है।
अमुक आत्मा ने राज-पाट छोड दिया। अपार भवसुखों को लात मार दी और केवल आत्म-कल्याण के लिए ही संयम को स्वीकार कर वे महात्मा संयम पालन में सुधीर बने। ऐसे-ऐसे वृतान्त पढने या सुनने पर रोमांच होना चाहिए। उनके विचारों में ऐसे पुण्यात्माओं को देखते ही हाथ जुड जाना चाहिए। हमसे नहीं होता है, हमारा क्या होगा?’ ऐसा दुःख होना चाहिए। आत्म-कल्याण की सच्ची अभिलाषा सहज प्रकार से, ये सब भाव उत्पन्न कर देती है। आत्म-कल्याण की सच्ची अभिलाषा प्रकट होने पर भी कदाचित संसार त्याग न हो, यह संभव है। किन्तु, संसार के प्रति उदासीनता अवश्य आ जाती है। कारण कि आत्म-कल्याण की सच्ची अभिलाषा ही वह कहलाती है, जो संसार से मुक्त बनने के स्वरूप वाली हो।
आत्म-कल्याण की बातें तो बहुत करते हैं, किन्तु आत्म-कल्याण की सच्ची अभिलाषा बहुत ही कम लोगों में प्रकट हो पाती है और इसीलिए आज जैन समाज में वैराग्य के सामने आक्रमण का माहौल है। आत्म-कल्याण की सच्ची अभिलाषा हो, वहां वैराग्य का सत्कार हो या वैराग्य का तिरस्कार हो? आज तो कितने ही बेचारे कहते हैं कि अमुक महाराज बहुत खराब हैं, क्योंकि वे केवल वैराग्य की बातें करते हैं। ऐसा-ऐसा बोलने वाले कितने दया के पात्र हैं? जैन कुल में जन्म पाकर भी ये बेचारे जैनत्व से वंचित हैं।
ऐसे नामधारी जैन ही आज श्री जैन शासन के मूलभूत सिद्धान्तों पर आघात कर रहे हैं। कारण कि उनके मिथ्यात्व का उदय खूब ही मजबूत है। उनका संसार प्रगाढ है, इसीलिए ही उनको सच्चे वैराग्य के प्रति भी घृणा है। ऐसे लोग जैन कुल में जन्म लेकर भी तिर्यंच और नरक में जाने का काम करते हैं, इसका दुःख है। कैसे उनकी आत्मा का कल्याण होगा, इसका विचार आता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें