मंगलवार, 5 अगस्त 2014

आत्मार्थी बनो


आत्मा के मूलभूत स्वरूप को प्रकट करने का प्रयत्न करना, यही इस मनुष्य जीवन को सफल बनाने का उपाय है। इस बात को आज बहुत से लोग, जैन कुल में उत्पन्न होने पर भी समझते नहीं हैं और इसीलिए ही उनमें मोह को पैदा करने में ज्यादा कारणरूप बने, ऐसे संसर्गों को लात मारने वालों की तरफ सम्मानवृत्ति जागृत होने के स्थान पर तिरस्कारवृत्ति जागृत होती है। संसार का सुख एवं आधिपत्य, बालवय वाला पुत्र और युवान स्त्री आदि के प्रति मोह को त्याग कर, संयम की साधना के लिए उद्यमवंत बनने वाली आत्माओं के प्रति तो सच्ची श्रद्धालु आत्माओं का मस्तक सहज रूप में झुक जाए। ऐसा हो जाए कि धन्य हो ऐसी आत्माओं को’, यह बोल स्वतः निकल पडें। इतना ही नहीं, अपितु श्रद्धासम्पन्न आत्माओं को तो स्वयं की पामरता के लिए खेद भी होता है।

किन्तु, आज बहुत से पामरों को पामरता लगती ही नहीं है। संसार में निवास करना दुःखरूप है और संयम-साधना ही कल्याणकारक है, ऐसा मानने वाले भी कम ही हैं। अनन्तोपकारी श्री जिनेश्वरदेवों के शासन पर सच्ची श्रद्धा हो, ऐसी आत्माएं जैन गिने जाते आदमियों की लाखों की संख्या में भी गिने-चुने ही होंगे। पुत्र, स्त्री, परिवार आदि तो कर्म के योग से आ मिलते हैं।

वस्तुतः इनमें से कोई आत्मा का नहीं है। आत्मा का कोई है तो वह केवल आत्मा के गुण ही हैं। इसलिए समझदार मनुष्य तो वही माना जाएगा जो आत्मा के गुणों को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनता है और इस प्रयत्न में जितनी कमी रह जाती है, उसका पश्चाताप करने से नहीं चूकता है। ऐसी समझदारी जिन पुण्यात्माओं में प्रकट होती है, वे पुण्यात्मा दूसरों के भौतिक हित का अनुचित रीति से विचार करते ही नहीं हैं।

वे सच्चे स्वार्थी होते हैं। आज दुनिया में जिस अर्थ में स्वार्थी शब्द का प्रयोग होता है, वैसे स्वार्थी नहीं, किन्तु स्व अर्थात् आत्मा और उसके अर्थी वह स्वार्थी, यानी आत्मार्थी। इस अर्थ के स्वार्थी (आत्मार्थी) सबको बनना चाहिए। ऐसे स्वार्थी बनने वाले ही सच्चे परमार्थी बन सकते हैं। सच्चा परोपकार आत्मार्थी आत्माएं ही कर सकती हैं। भावदया से रहित आत्मा जो द्रव्यदया कर सकती है, उसकी अपेक्षा भावदया को प्राप्त हुए बहुत ही सुन्दर प्रकार से द्रव्यदया भी कर सकते हैं और यही दया सुन्दर प्रकार से फलदायी होती है। आत्मा को इस संसार में रखडते-रखडते अनंत काल व्यतीत हो गया है। विचार करो कि अनन्तकाल में प्रत्येक ने कितने संबंधियों को रुलाया होगा और अभी भी जब तक संसार में हैं, अपने निमित्त से कितने रोएंगे? संसार छोडा तो मोह के कारण कुछ दिन रोएंगे, लेकिन उन्हें भी आत्मार्थी बनाकर आत्म-कल्याण के इस मार्ग पर लाना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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