गुरुवार, 22 जनवरी 2015

जीवन को सही रूप में समझें



भौतिक सुख एक उत्तेजना है, और दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शान्ति की अवस्था है। भौतिक सुख जो चाहता है, वह निरंतर दुःख में पडता है। क्योंकि, एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के साथ रात्रियां। किन्तु, जो सुख और दुःख दोनों को छोड कर सर्वविरति के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनन्द को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।

आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनन्द की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं, वे जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक सम्पदा है। उसे न खोजकर, जो कुछ और खोजते हैं, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंततः वे पाएंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं।

जीवन एक दिव्य गीत है

जीवन को धन्य बनाने की बात तभी बन सकती है, जबकि जीवन को सही रूप से समझ लिया जाए। अभी हममें से बहुत कम व्यक्ति ऐसे होंगे, जिन्होंने जीवन को सर्वांगीण रूप से सर्वतोभावेन समझ लिया हो। आप आज आत्मा की मूल सत्ता को भुलाए बैठे हैं। आप शान्ति को, आनन्द को पाना चाहते हैं, लेकिन उसे बाहर ही बाहर खोज रहे हैं। पर पदार्थों में, पर-घरों में शान्ति खोज रहे हैं। यह जीवन नहीं है। जीवन एक पवित्र यज्ञ है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए अपनी आहुति देने को तैयार होते हैं। जीवन एक अमूल्य अवसर है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो साहस, संकल्प और श्रम करते हैं। जीवन एक वरदान देती चुनौती है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो उसे स्वीकारते हैं और उसका सामना करते हैं। जीवन एक महान संघर्ष है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो स्वयं की शक्ति को इकट्ठा कर विजय के लिए जूझते हैं। जीवन एक भव्य जागरण है। लेकिन, उन्हीं के लिए जो स्वयं की निंद्रा और मूर्च्छा से लडते हैं। जीवन एक दिव्य गीत है। लेकिन, उन्हीं के लिए जिन्होंने स्वयं को परमात्मा का वाद्य बना लिया है। अन्यथा, जीवन एक लम्बी व धीमी मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जीवन वही हो जाता है, जो हम जीवन के साथ करते हैं। अतिदुर्लभ यह मानव जीवन, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं, वह सिर्फ खाने-पीने और सोजाने के लिए नहीं है, अपितु प्रमाद को छोडकर, अपने कर्मों का क्षय कर आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए, अक्षय आनंद और अक्षय सुख प्राप्त करने के लिए है। संसार में फिर जन्म न लेना पडे, भटकना न पडे, इसके लिए पुरुषार्थ करने के लिए यह जीवन है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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